पीडीपी-भाजपा सरकार - कहां वादे और कहां अमल - मोहम्मद यूसुफ तारिगामी
जम्मू-कश्मीर के पिछले विधानसभाई चुनाव के लिए भाजपा और पीडीपी के प्रचार की दिशा एक-दूसरे से ठीक उल्टी थी। जहां भाजपा ने धु्रवीकरण किया और इसका फायदा उठाकर जम्मू में 25 सीटें हासिल कर लीं, पीडीपी ने स्वशासन के अपने नारे तथा ‘‘मोदी लहर’’ का मुकाबला करने के अपने वादों के बल पर, कश्मीर में 28 सीटें हासिल कर लीं।
बहरहाल, चुनाव में एक-दूसरे के खिलाफ खड़े होने के बाद, भाजपा और पीडीपी ने सत्ता में साझेदारी का समझौता कर लिया। इसके लिए उन्होंने महत्वपूर्ण विचारधारात्मक तथा राजनीतिक मुद्दों पर अपने गहरे मतभेदों के बने रहते हुए भी, एक गोलमोल सा ‘‘गठबंधन का एजेंडा’’ पेश कर दिया। इस गठजोड़ की सरकार बनते ही दोनों पार्टियों के नेताओं ने बढ़-चढक़र इसके दावे करने शुरू कर दिए कि इसके जरिए उन्होंने जम्मू-कश्मीर में ‘‘शांति’’, ‘‘सुलह-समझौते’’ तथा ‘‘विकास’’ के ‘‘ऐतिहासिक अवसर’’ को पकडक़र दिखाया है।
सत्ता के हिस्सा बांट के इस सौदे पर पहले तो लोगों हैराली हुई, लेकिन समय गुजरने के साथ लोगों ने उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है। बहरहाल, मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद का दावा है कि यह गठजोड़ ‘‘सुलह-समझौते’’ का प्रतीक है और राज्य के दो क्षेत्रों के दो समुुदायों के जनादेश का सम्मान किए जाने को दिखाता है। उन्होंने यह दावा भी किया था कि बाढ़ से तबाह हुए जम्मू-कश्मीर को इस नुकसान की भरपाई करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर फंड चाहिए और राज्य को ये फंड तभी मिल सकते हैं जब केंद्र में सत्ता में बैठी भाजपा, इस राज्य में भी सरकार में शामिल होगी।
बहरहाल, सुलह-समझौते और शांति के सारे लंबे-चौड़े दावे, पूरी तरह से हवाई ही साबित हुए हैं। सुलह-समझौते की बात तो दूर रही, सच तो यह है कि भाजपा-आरएसएस द्वारा उत्पन्न ध्रुवीकरण ने अपने विषैले तंतु और दूर तक फैला लिए हैं। संघ परिवार के अनवरत फूटपरस्त अभियान ने इस राज्य में विभाजन को और तीखा कर दिया है और मुस्लिम तत्ववाद के फलने-फूलने के लिए अनुकूल माहौल बनाया है।
बाढ़ पीडि़तों के पुनर्वास और उन्हें राहत दिलाने के काम को एक तरह से ठंडे बस्ते में ही डाल दिया गया है। व्यापारी, किसान, बगवान, दस्तकार, सभी बाढ़ में हुए अपने भारी नुकसान के लिए, समुचित राहत व मुआवजे लिए तड़प रहे हैं। बाढ़ के दौरान ध्वस्त हुए बुनियादी ढांचे को अब भी अपने पुनर्निर्माण का इंतजार है। बाढ़ से बचाव के काम अब तक हाथ में नहीं लिए गए हैं और कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों में सडक़ संचार को अब तक पूरी तरह से बहाल नहीं किया जा सका है।
जनता आमतौर पर भारी आर्थिक संकट की मार झेल रही है। सार्वजनिक सेवाओं के ठप्प पड़े होने तथा सरकारी मशीनरी की असंवेदनशीलता के चलते, जनता की तकलीफें कई गुना बढ़ गयी हैं। कल्याणकारी योजनाओं को फंड की कमी का सामना करना पड़ रहा है। सरकारी कर्मचारियों को, जिनमें दिहाड़ी मजदूरों, अस्थायी मजदूरों तथा ठेका कर्मचारियों की ही संख्या सबसे बड़ी है, कई-कई महीने तनख्वाह नहीं मिलती है। इसके बाद भी अगर वे शांतिपूर्वक विरोध कार्रवाई करते हैं, तो उसे नृशंस दमन के जरिए कुचलने की कोशिश की जाती है। इसी प्रकार, मेहनतकशों के जनतांत्रिक तथा ट्रेड यूनियन अधिकारों का भी अतिक्रमण किया जा रहा है।
जम्मू-कश्मीर में बेरोजगारी ने भयानक रूप ले लिया है। राज्य के युवाओं के बीच भारी हताशा तथा मोहभंग की स्थिति होने की एक बड़ी वजह यह भी है। जम्मू-कश्मीर में उद्योगों तथा निजी क्षेत्र के उद्यमों के अभाव में, राज्य के युवाओं को रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों के लिए जाना पड़ता है। लेकिन, देश के अन्य अनेक हिस्सों में उन्हें जिस तरह प्रतिकूल वातावरण का तथा परेशान किए जाने का सामना करना पड़ता है, उससे युवाओं की चिंता तथा बेचैनी और बढ़ जाती है।
जहां अफस्पा के निरस्त किए जाने, बिजली परियोजनाएं राष्टï्रीय जल विद्युत निगम से वापस लेकर जम्मू-कश्मीर को लौटाए जाने जैसे मुद्दों को बरतरफ कर दिया गया है, संघ परिवार विभिन्न मंचों के जरिए धारा-370 को चुनौती देना जारी रखे हुए है। इसके साथ ही वे परमानेंट रेसीडेंट सार्टिफिकेट (पी आर सी) जारी करने के कानून को कमजोर करने के लिए भी कमर कसे हुए हैं।
रनबीर दंड संहिता के अंतर्गत गोकशी पर पाबंदी लगी होने के बावजूद, गोमांस खाना पिछले कई दशकों से कोई मुद्दा ही नहीं था। लेकिन, गोमांस पर पाबंदी के कड़ाई से लागू किए जाने के जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के हाल के निर्देश ने, इस राज्य के बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को आघात पहुंचाया है। इसने राज्यों के दोनों प्रमुख समुदायों के बीच धु्रवीकरण और बढ़ा दिया है। इस सबके पीछे साफ तौर पर एक षडयंत्र नजर आता है क्योंकि हाई कोर्ट में संबंधित याचिका डालने वाला परमिकोश सेठ, भाजपा का कार्यकर्ता तथा वकील है। उसने ही गोमांस पर पाबंदी लगाने की याचिका हाई कोर्ट में डाली थी, जबकि यह सचाई किसी से छुपी हुई नहीं है कि जनता के आहार संबंधी रीति-रिवाजों के साथ दखलंदाजी करना, सीधे-सीधे उनके मौलिक अधिकारों पर ही हमला करना है।
जम्मू-कश्मीर में व्याप्त अनिश्चितता को, बाकी चीजों से काटकर नहीं देखा जा सकता है। नई-दिल्ली में आरएसएस के नेतृत्ववाली एडीए सरकार बनने के साथ संघ परिवार द्वारा छेड़े गए जहरभरे सांप्रदायिक अभियानों ने देश में अल्पसंख्यकों के बीच और खासतौर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच दहशत तथा असुरक्षा पैदा कर दी। मुसलमानों के बीच भारी दहशत फैली हुई है, जिससे ऐसा वातावरण पैदा हो गया है जो मुस्लिम तत्ववाद के विकास के लिए मुफीद है।
नियंत्रण रेखा पर युद्घ विराम को सीमा के दोनों ओर के लोगों ने बहुत पसंद किया था। बहरहाल, नियंत्रण रेखा एक बार फिर गर्म हो गयी है, जिससे सीमा के दोनों ओर के लोगों को भारी नुकसान हो रहा है। सीमा पर रुक-रुककर होती गोलाबारी ने स्थानीय लोगों की जिंदगी दयनीय बना दी है। अब तक कई अमूल्य जानें जा चुकी हैं और सीमा के दोनों ओर के लोगों को अपने घर-गांव छोडक़र भागना पड़ा है।
भारत और पाकिस्तान के रिश्तों में तनाव ने भी इस क्षेत्र में हालात को खराब कर दिया है। उफा वार्ताओं से जो मौका मिला था, उसे जाया कर दिया गया है। नवाज शरीफ पर राष्टï्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) स्तर की वार्ताओं से पीछे हटने के लिए भारी दबाव था। पाकिस्तानी हाई कमीशन द्वारा हुर्रियत नेतृत्व को बुलाए जाने को बहाना बनाकर मोदी सरकार ने, बातचीत की प्रक्रिया को विफल करने में अपने पाकिस्तानी समकक्षों की मदद की थी।
इस घटनाविकास के तेजी से लोगों का मोहभंग हो रहा है और नाउम्मीदी का माहौल बन रहा है, जिसमें उन्हीं ताकतों का बढ़ावा मिल सकता है, जो शांति प्रक्रिया को कमजोर करना चाहती हैं।
आने वाले दिनों में हालात और गंभीर होने जाने वाले हैं। संघ परिवार देश के पैमाने पर गड़बड़ी पैदा करने के हरेक मौके का इस्तेमाल कर रहा है। धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक ताकतों को इस सांप्रदायिक हमले का प्रतिरोध करने के लिए लोगों को संगठित करने के जरिए अपना दायित्व पूरा करना चाहिए। वामपंथी ताकतों को, भले ही उनकी शक्ति बहुत ज्यादा नहीं है, आने वाले समय में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी होगी।