दिल्लीवालों से रिलायंस और टाटा ने लूटे 8,000 करोड़

सीएजी की रिपोर्ट में हुआ खुलासा
दिल्लीवालों से रिलायंस और टाटा ने लूटे 8,000 करोड़
 
प्रबीर पुरकायस्थ
 
दिल्ली में तीन निजी बिजली वितरण कंपनियों पर नियंत्रक तथा लेखा परीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट का मसौदा सामने आया है। रिपोर्ट का यह मसौदा दिखाता है कि दिल्ली की जनता को इन कंपनियों ने पूरे 8,000 करोड़ रु0 का चूना लगाया है।
 
घोटाला और मिलीभगत
            इनमें से दो कंपनियां, बी एस ई एस यमुना पावर लि0 (बी वाइ पी एल) तथा बी एस ई एस राजधानी पावर लि0 (बी आर पी एल), तो अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप द्वारा नियंत्रित है, जबकि तीसरी कंपनी है टाटा पावर दिल्ली डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी (टी पी डी डी एल)। इन तीनों कंपनियों ने सोचे-समझे तरीके से यह घोटाला किया है। इस घोटाले के लिए इन बिजली वितरण कंपनियों ने अपनी बिजली खरीद की लागत बढ़ा-चढ़ाकर दिखायी है, अपने वास्तविक राजस्व को घटाकर दिखाया है और अपने ही ग्रुप की कंपनियों को अंदरखाने अनुचित फायदे पहुंचाने वाले सौदों के जरिए धोखाधड़ी की है। जाहिर है कि इस सबके चलते, दिल्ली की जनता से बढ़े-चढ़े बिजली बिलों की वसूली के जरिए यह लूट की गयी है।
            2010 मेें दिल्ली राज्य बिजली नियामक आयोग (डी ई आर सी) के तत्कालीन अध्यक्ष, ब्रजेंद्र सिंह ने अपने टैरिफ आर्डर में इसकी ओर इशारा किया था कि दिल्ली की निजी बिजली कंपनियां अपने खातों में हेराफेरी कर रही थीं और दिल्ली की बिजली की दरों में कम से कम 23 फीसद की कटौती किए जाने की जरूरत है। लेकिन, दिल्ली की तत्कालीन सरकार ने, जिसकी नेता शीला दीक्षित थीं, उक्त टैरिफ ऑर्डर का रास्ता रोक दिया था और उनका कार्यकाल समाप्त होने के बाद, डी ई आर सी में ऐसे लोगों को बैठा दिया, जो निजी कंपनियों का मनचाहा करने के लिए तैयार थे। नतीजा यह हुआ कि बिजली की दरें कम किए जाने के बजाए, डी ई आर सी ने 2011 में बिजली की दरें बढ़ा दीं और 2013 में एक बार फिर इन दरों में बढ़ोतरी कर दी। इस तरह, बिजली वितरण कंपनियों ने दिल्ली की जनता के साथ जो 8,000 करोड़ रु0 की धोखाधड़ी की है, उसमें दिल्ली की पिछली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित समेत, सरकार के अधिकारियों का भी किसी न किसी रूप में हाथ जरूर रहा है।
घोटाला बेनकाब
होने के बाद
            दिल्ली में सत्ता संभाले बैठी आम आदमी पार्टी, बिजली तथा पानी की ऊंची दरों के खिलाफ अभियान छेड़े रही है। उसकी सरकार ने निजी बिजली वितरण कंपनियों के खातों की जांच सीएजी से कराने का जो फैसला लिया था, उसने एक स्वागतयोग्य उदाहरण कायम किया है कि सार्वजनिक उपयोगिताओं की भूमिका अदा करने वाली कंपनियों को सीएजी की जांच के दायरे में लाया जाना चाहिए। इसके साथ ही केजरीवाल सरकार ने, ब्रजेंद्र ङ्क्षसह की ही अध्यक्षता में, दिल्ली में बिजली की दरों की जांच-पड़ताल करने के लिए, एक सदस्यीय कमेटी भी गठित की है। ब्रजेंद्र सिंह कमेटी ने भी जो मसौदा रिपोर्ट दी है, उसमें भी मूलत: वही बातें कही गयी हैं, जो सीएजी की रिपोर्ट में कही गयी हैं। इस सब को देखते हुए यह जरूरी हो जाता है कि केजरीवाल सरकार रिलायंस तथा टाटा के साथ दिल्ली सरकार के समझौतों को रद्द करने के लिए फौरन कदम उठाए, निजी बिजली वितरण कंपनियों का अधिग्रहण करे और दिल्ली विद्युत बोर्ड के निजीकरण को पलटे। लेकिन, ऐसा लगता है कि यह करने के बजाए वे तो दूसरी निजी कंपनियों के साथ वही तजुर्बा दोहराने जा रहे हैं, जिसके नतीजे पहले जैसे ही होने वाले हैं।
            आप सरकार को न सिर्फ इन निजी वितरण कंपनियों से यह 8,000 करोड़ रु0 वसूल करने के लिए कदम उठाने चाहिए बल्कि इन कंपनियों के खिलाफ तथा दिल्ली सरकार व डी ई आर सी में रहे उन अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई भी करनी चाहिए, जिनकी मिलीभगत से यह फर्जीवाड़ा हुआ था।
            याद रहे कि सी पी आइ (एम) ने न सिर्फ दिल्ली विद्युत बोर्ड के निजीकरण का विरोध किया था बल्कि उसी समय यही सब होने की भविष्यवाणी की थी, जिसे अब सीएजी ने बेनकाब किया है। पार्टी ने उसी समय यह भी ध्यान दिलाया था कि निजीकरण की यह पूरी की पूरी कसरत, उन परिसंपत्तियों के किसी गंभीर मूल्यांकन के बिना ही की जा रही थी, जो इस तरह निजी कंपनियों के हाथों में सौंपी जा रही थीं। उल्टे निजी कंपनियों के लिए दिल्ली सरकार के खजाने से भारी रकमों के वास्तविक हस्तांतरणों के  रूप में इन कंपनियों को ‘‘प्रोत्साहन’’ ही दिए जा रहे थे। इस सब ने ही दिल्ली के नागरिकों के इस तरह से लूटे जाने में मदद की थी।
 
बिजली की खरीद और बिक्री में हेरा-फेरी
 
            हालांकि सीएजी की मसौदा रिपोर्ट अब तक नहीं आयी है, फिर भी कम से कम इतनी जानकारियां तो सामने आ ही चुकी हैं कि निजी कंपनियों द्वारा की गयी हेराफेरी के मुख्य तत्वों को रेखांकित किया जा सकता है।
            निजी वितरण कंपनियों की कुल लागत में, करीब 80 फीसद हिस्सा बिजली खरीद के खातों का होता है। इन निजी बिजली कंपनियों ने देश की किसी भी अन्य बिजली उपयोगिता की तुलना में ज्यादा दाम पर बिजली की खरीद दिखाई है। आप सरकार द्वारा गठित ब्रजेंद्र सिंह कमेटी की भी मसौदा रिपोर्ट यही दिखाती है कि इन बिजली वितरण कंपनियों ने, उस समय भारत के बिजली एक्सचेंज मार्केट में बिजली की खरीद-फरोख्त का जो दाम चल रहा था, उससे 50 फीसद ज्यादा पर बिजली की खरीद दिखाई थी।
            निजी वितरण कंपनियों द्वारा अपनी बिजली की खरीद का खर्चा बढ़ाकर दिखाने के लिए तरह-तरह की तिकड़में की जा रही थीं। एक आसान तरीका तो यही था कि अपने ही ग्रुप की किसी कंपनी से बढ़े-चढ़े दाम पर बिजली खरीदी जाए। याद रहे कि टाटा और रिलायंस, दोनों ही बिजली उत्पादन तथा उसके व्यापार के कारोबार में भी हैं। ये कंपनियां आसानी से अपने ही ग्रुप की कंपनियों के जरिए, महंगे दाम पर बिजली खरीद सकती थीं और इस बढ़ी हुई कीमत का बोझ दिल्ली के उपभोक्ताओं पर डाल सकती थीं। खुद इनकी अपनी बिजली उत्पादन कंपनियों से अगर बिजली नहीं खरीदी जा रही हो तब भी उनकी निजी बिजली वितरण कंपनियां बिजली की खरीद-फरोख्त करने वालों के रास्ते से, बिजली की खरीद के दाम बढ़ा सकती थीं।
            दिलचस्प है कि हेराफेरी का यह खेल, सिर्फ मंहगी बिजली खरीदने के जरिए ही नहीं किया जा रहा था बल्कि बिजली व्यापारियों तथा अपने ही ग्रुप की अन्य कंपनियों के लिए सस्ते दाम पर बिजली की बिक्री के जरिए भी किया जा रहा था। याद रहे कि बिजली वितरण कंपनियों को बिजली की खरीद के अपेक्षाकृत दीर्घावधि समझौते करने होते हैं। इसका मतलब यह है कि मिसाल के तौर पर दिल्ली में अगर पर्याप्त मांग न हो तथा इसके चलते उतनी बिजली न खपायी जा सकती हो, तब भी उन्हें जितनी बिजली की खरीद का ठेका हो उतने के दाम देने ही होते हैं। इस तरह जो फालतू बिजली, इन बिजली वितरण कंपनियों के पास बच जाती है, वह लागत मूल्य से कम पर बेची जाती है। जाहिर है कि इस तिकड़म के सहारे आसानी से कोई कंपनी अपने खातों में फर्जी घाटे दिखा सकती है।
            इस तरह ये निजी बिजली कंपनियां, अपनी ही कंपनियों के अन्य बाजुओं के पक्ष में इस तरह के छुपे हुए हस्तांतरणों के जरिए, अनुचित कमाई करती रही हैं। उधर नियंत्रक की भूमिका में डी ई आर सी ने इन सभी धांधलियों की ओर से आंखें मूंद रखी थीं और इस तरह की छुपी हुई लागतोंं का बोझ उपभोक्ताओं के कंधों पर डालने में बिजली कंपनियों के साथ मिलीभगत कर रखी थी।
 
दूसरी तिकड़में
 
            इस फर्जीवाड़े का एक और तत्व था, अपने ही ग्रुप की कंपनियों के माध्यम से बढ़ी हुई कीमतों पर इंजीनियरिंग और उपकरणों की खरीद तथा स्थापना कराना। यह ऐसा तत्व है जिसकी ओर विभिन्न सार्वजनिक सुनवाइयों में भी बार-बार ध्यान खींचा जाता रहा था। यह दूसरी बात है कि इसकी ओर ध्यान खींचे जाने के बावजूद, डी ई आर सी ने और दिल्ली सरकार ने भी, हितों के ऐसे टकराव से निपटने का कोई प्रयास ही नहीं किया था। ऐसी परियोजनाओं के सार्वजनिक टेंडर जारी किए जाने पर कोई जोर ही नहीं दिया गया। इसके बजाए, इस तरह की घपलेबाजी को चलते रहने दिया गया और दिल्ली के उपभोक्ताओं को लुटने दिया गया।
            सीएजी की रिपोर्ट यह भी बताती है कि निजी कंपनियों ने अपनी राजस्व प्राप्तियों को छुपाया था और वास्तव में जितना राजस्व उन्हें मिला था, उसे घटाकर दिखाया था।
            इसके अलावा जहां सीएजी ने तो सिर्फ उक्त कंपनियों के खातों की छानबीन की है, जबकि निजी बिजली वितरण कंपनियों पर दूसरी बहुत से हेराफेरियों के भी आरोप लगते रहे हैं। इनमें से एक बड़ा आरोप तो बिजली के मीटरों के सिलसिले में ही लगाया जाता रहा है। दिल्ली में बिजली के नये मीटर लगाए जाने का काम एपीडीआरपी कार्यक्रम के तहत कराया गया था, जिसका पैसा केंद्र सरकार ने दिया था। इन मीटरों के लगाए जाते ही, मीटरों के द्वारा दर्शायी जा रही बिजली की खपत में अचानक तेजी से बढ़ोतरी हो गयी, जिससे इन मीटरों के दुरुस्त होने के संबंध में ही संदेह पैदा हो गए थे। इस तरह के संदेहों का कभी समुचित रूप से निराकरण किया ही नहीं गया।
            ऐसी ही शिकायतें इन कंपनियों द्वारा बिजली के बिल तैयार करने में इस्तेमाल किए जा रहे सॉफ्टवेयर के संबंध में की जाती रही हैं। इस सॉफ्टवेयर का किसी स्वतंत्र निकाय ने प्रमाणन किया ही नहीं है। जैसा हमने पहले ही कहा, सीएजी की रिपोर्ट में इन पहलुओं को नहीं छुआ गया है। बहरहाल, ब्रजेंद्र सिंह कमेटी ने जरूर डी ई आर सी से पूछा है कि क्या उसने बिलिंग के सॉफ्टवेयर की जांच करायी थी। डी ई आर सी को इस सवाल का जवाब देना मंजूर नहीं हुआ है।
            वास्तव में आज बिजली के क्षेत्र में हम जो समस्याएं देख रहे हैं, उनकी जड़ें राज्य बिजली बोर्डों का पुनर्गठन किए जाने और इन पुनर्गठित बोर्डों के विभिन्न पहलुओं का निजीकरण किए जाने में हैं। विश्व बैंक तथा इसी तरह के अन्य संस्थान इसके लिए जोर लगाते आए हैं कि विकासशील देशों को बिजली के क्षेत्र का निजीकरण करना चाहिए और इसके लिए बिजली उत्पादन, पारेषण तथा वितरण की भूमिकाओं को अलग-अलग किया जाना जरूरी है। यही वह मॉडल है जिस पर भारत पिछले ढ़ाई साल से चलता आया है।
 
बिजली के निजीकरण की झूठी दलील
 
            इसी के हिस्से के तौर पर शुरू-शुरू में बिजली उत्पादन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को लाने की कोशिश की गयी थी, जिसका नतीजा एनरॉन जैसी भारी विफलताओं के रूप में सामने आया था। बेशक, इसके मुकाबले में बिजली के क्षेत्र में तथाकथित दूसरी पीढ़ी के ‘सुधार’ कहीं बेहतर प्रदर्शन दिखाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन इसकी कीमत बैंकों को चुकानी पड़ी है, जिन्होंने बिजली उत्पादन के क्षेत्र मेंं निवेश करने के लिए निजी क्षेत्र को पूंजी मुहैया करायी थी। वास्तव में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के डूबे हुए ऋणों में एक बड़ा हिस्सा इन निवेशों से ही आया है।
            बिजली वितरण कंपनियों के निजीकरण का दांव ओडिशा में और दिल्ली में आजमाया गया। ओडिशा का दांव फौरन ही, ओडिशा में आए साइक्लोन के बाद पूरी तरह से विफल हो गया क्योंकि निजी वितरण कंपनियों ने ग्रामीण इलाकों में बिजली के पारेषण तथा वितरण के ताने-बाने को हुए नुकसान की मरम्मत कराने से ही इंकार कर दिया। इसके बाद राज्य सरकार को इन वितरण कंपनियों का अधिग्रहण करना पड़ा ताकि जनता तक बिजली पहुंचती रहे।
            इसके विपरीत, दिल्ली के बिजली वितरण व्यवस्था के निजीकरण को, सार्वजनिक बिजली वितरण कंपनी के निजीकरण के सफल मॉडल के रूप में पेश किया जाता रहा है। बहरहाल, अब यह सचाई सामने आ रही है कि निजीकरण की कामयाबी की यह गाथा भी सोचे-समझे फर्जीवाड़े, हिसाब-किताब में हेराफेरी और निजी वितरण कंपनियों के साथ नियमनकारी तथा सरकारी अधिकारियों की मिलीभगत के बल पर रची गयी है।
            लेकिन, इसके लिए सिर्फ दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार को ही दोष देना ठीक नहीं होगा। बेशक, वह इस मामले में दोषी है और इस मामले में ज्यादा दोष उसका ही है, फिर भी भाजपा के नेतृत्ववाली तत्कालीन केंद्र सरकार भी, दिल्ली के इन कथित बिजली सुधारों का पूरी तरह से साथ दे रही थी। वास्तव में वह सरकार ही 2003 का बिजली कानून लायी थी, जिसने राज्य बिजली बोर्डों पर त्रिभाजन का फार्मूला करीब-करीब थोप ही दिया था। इस कानून के जरिए ही वह कानूनी ढांचा गढ़ा गया था, जो उपयोगिताओं पर इसकी शर्त लादता था कि बिजली के क्षेत्र में वे तथाकथित ‘‘खुली पहुंच’’ की व्यवस्था के तहत ही काम करेंगी।
            खुली पहुंच की व्यवस्था का अर्थ ऐसी व्यवस्था है जिसमें कोई भी, कहीं का भी बिजली उत्पादक, पारेषण तथा वितरण कंपनियों के बिजली के ताने-बाने का उपयोग कर, किसी भी उपभोक्ता तक अपनी बिजली पहुंचा सकता हो। जाहिर है कि नवउदारवादी सुधारों का तो मूल मंत्र ही यह है कि बाजार ही वह भगवान है जो सारी समस्याएं हल कर देगा, फिर चाहे समस्याएं कैसी भी क्यों न हों!
 
बिजली के क्षेत्र में कामयाब नहीं है बाजार
 
            लेकिन, बिजली के क्षेत्र में बाजार के कामयाब न होने की वजह क्या है? पहली बात तो यह है कि बिजली का क्षेत्र उस तरह का बाजार नहीं बन सकता क्योंकि इस बाजार में खरीददार और बिक्रेता मिल नहीं सकते हैं। ऐसी स्थिति में यह नियमनकर्ता द्वारा गढ़ा जाने वाला एक कृत्रिम बाजार ही हो सकता है। दूसरे बाजारों से भिन्न, नियमनकर्ता को एक पूरी तरह से कृत्रिम सत्ता ही कहा जाएगा। इसीलिए, निजी कंपनियों के लिए इस बाजार में धांधली करने के लिए इतना ही काफी होगा कि वे नियमनकर्ता पर काबिज हो जाएं। समस्या इस बात से और भी बढ़ जाती है कि हमारे देश के बिजली नियामक, विशाल संसाधनों की स्वामी बिजली कंपनियों और साधारण उपभोक्ताओं को, एक ही डंडे से हांकते आए हैं। बिजली नियामकों ने उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी की अनदेखी ही की है।
            बिजली के क्षेत्र में बाजार के कामयाब न रहने की दूसरी वजह और भी बुनियादी है। इन तथाकथित बिजली सुधारों में, बाजार के तौर पर ग्रिड का ही उपयोग किया जाता है। इस बाजार में हरवक्त ग्रिड ही मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन करते हैं। इसके विपरीत, सामान्य रूप से बाजार हर क्षण मांग और आपूर्ति में संतुलन कर के नहीं चल रहे होते हैं बल्कि अपेक्षाकृत लंबे चक्र में दोनों के बीच संतुलन कायम किया जा रहा होता है। याद रहे कि दूसरे अधिकांश क्षेत्रों में तो खरीदी-बेची जा रही वस्तुओं का भंडार कर के रखा जा सकता है, ताकि मांग और आपूर्ति में सं$तुलन किया जा सके। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद बहुत बार इजारेदारी, जमाखोरी आदि के चलते बाजार नाकाम हो जाते हैं और संकट पैदा हो जाता है। लेकिन, बिजली ऐसी चीज है जिसे जमा कर के नहीं रखा जा सकता है। बिजली का ग्रिड, भौतिकी के नियमों से चलता है, न कि बाजार के नियमों से। इसीलिए, दुनियाभर में बिजली के बाजार नाकाम रहे हैं। कैलीफोर्निया में 2000 तथा 2001 में जो कुछ हुआ था, इसका खासतौर पर धमाकेदार सबूत था।
            पहले ही बहुत से ‘विशेषज्ञों’ ने तो यह कहना भी शुरू कर दिया है कि इस क्षेत्र में अभी और ज्यादा सुधारों की जरूरत है और यह भी पूरी तरह से ‘‘खुली पहुंच’’ की व्यवस्था तक पहुंच जाने के बाद ही, इस तरह का फर्जीवाड़ा न होना सुनिश्चित किया जा सकेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि यह तथ्यों की सारी प्रतिकूल गवाही के बावजूद, मिथकीय बाजार के सारी समस्याओं को हल कर देने के अंधविश्वास का ही मामला है। सचाई यह है कि तथाकथित ‘‘खुली पहुंच’’ का भी अन्य देशों का अनुभव यही दिखाता है कि सिर्फ बहुत बड़े बिजली उपभोक्ता ही बिजली के बाजार से बिजली खरीदने के मौके से कोई लाभ हासिल कर सकते हैं। ये कथित सुधार वास्तव में बड़े कारोबारियों के हित में काम करते हैं और छोटे उपभोक्ताओं को इनसे कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। उल्टे उन पर तो बोझ ही बढ़ाया जा रहा होगा और यह होगा ऐसी पुनर्वितरणकारी बिजली दरों के जरिए, जो बड़े कारोबारियों को लाभ दिलाती हैं और छोटे उपभोक्ताओं के खिलाफ काम करती हैं।
            आप पार्टी भी इस तरह की बातें कर रही है कि रिलायंस तथा टाटा के लाइसेंस रद्द कर, दूसरी निजी कंपनियों को लाइसेंस दिए जाएंगे। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने एक बार कहा था कि  इससे बड़ी मूर्खता नहीं हो सकती है कि बार-बार एक ही चीज करते रहें और यह उम्मीद करें कि इस बार कुछ  और नतीजा निकलेगा। कंपनी बदलने पर व्यवस्था ज्यों की त्यों बनाए रखने का आप पार्टी का फार्मूला, पहले वाली समस्याओं के दोहराए जाने तक ही ले जा सकता है।
            दिल्ली की सरकार को बिजली के क्षेत्र के निजीकरण की कांग्रेस और भाजपा की नाकाम रणनीति को ही पलटना चाहिए। दिल्ली को तो इसी की जरूरत है।