रेलवे के लिए देबराय कमेटी की रिपोर्ट : उसी नवउदारवादी रास्ते पर - रघु

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रेलवे के लिए देबराय कमेटी की रिपोर्ट : उसी नवउदारवादी रास्ते पर
- रघु
 
भारतीय रेलवे के पुनर्गठन पर देबराय कमेटी की रिपोर्ट में, जैसाकि पहले से अंदाजा लगाया जा सकता था, भारतीय रेलवे के विभिन्न पहलुओं को अलग-अलग करने और बस नाम भर लिए बिना रेलवे का निजीकरण करने की सिफारिश की है।
बस नाम छोडक़र निजीकरण के रास्ते पर
          इस रिपोर्ट में और उक्त कमेटी के अध्यक्ष व नीति आयोग के सदस्य, विवेक देबराय के अपने लेखों तथा प्रैस बयानों में, ‘‘उदारीकरण’’ की संज्ञा का उपयोग ही ज्यादा पसंद किया गया है और निजीकरण को शुद्घ रूप से हिस्सा पूंजी की बिक्री के रूप में व्याख्यायित किया गया है, जिसकी परिकल्पना उक्त रिपोर्ट में नहीं है। शब्दों पर ही और माथपच्ची करते हुए, रिपोर्ट में बड़ी कसरत से इसका भी दावा किया गया है कि रेलगाडिय़ों के संचालन में निजी ऑपरेटरों के प्रवेश का उसका मूलगामी प्रस्ताव तो महज ‘‘जो है उससे आगे’’ बढऩे का प्रस्ताव है, न कि किसी ‘‘नयी चीज’’ का प्रस्ताव। आखिरकार, कंटेनर सेवाओं, माल ढुलाई डिब्बों तथा मालगाडिय़ों के मामले में निजी खिलाड़ी तो पहले से ही काम कर रहे हैं।
          लेकिन, बिबेक देबराय साहब इतना संकोच क्यों कर रहे हैं? क्या आलोचनाओं के पूर्वानुमान ने उन्हें इस मामले में कुछ बचाव की मुद्रा अपनाने पर मजबूर कर दिया है? लेकिन, इंग्लेंड की तत्कालीन कंजर्वेटिव सरकार की प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर को, जिन्होंने ठीक उसी मॉडल के आधार पर जिससे देबराय कमेटी की रिपोर्ट स्पष्टï रूप से प्रभावित लगती है, 1993 में ब्रिटिश रेल के निजीकरण की शुरूआत की थी और ब्रिटेन में तथा तमाम विकसित पूंजीवादी देशों में अन्य नवउदारवादी नीतियों की लहर की शुरूआत की थी, ऐसी कोई हिचक नहीं हुई थी और उन्होंने, निजीकरण को निजीकरण ही कहा था।
          सच तो यह है कि देबराय कमेटी ने अपनी ही अंतरिम रिपार्ट के मुकाबले, अंतिम रिपोर्ट में एक हद तक पांव पीछे खींचे हैं। उसकी अंतरिम रिपोर्ट में कहीं ज्यादा लापरवाही से रेलवे के विभिन्न कामकाजी बाजुओं को पूरी तरह से काटकर अलग करने का प्रस्ताव किया गया था और सरकारी स्वामित्ववाली तथा निजी इकाइयों के बीच बिल्कुल स्पष्टï अंतर किया गया था। बहरहाल, अब अपनी अंतिम रिपोर्ट में, इस कमेटी ने उसके मुकाबले कहीं कदम ब कदम बढऩे का रुख अपनाया है और कहा है कि वह विभिन्न उपक्षेत्रों में, निजी तथा सार्वजनिक, दोनों तरह के ऑपरेटरों के काम करने के विचार के खिलाफ नहीं है। फिर भी, देबराय कमेटी की बुनियादी दिशा तो वही है कि रेलवे के काम-काज के विभिन्न हिस्सों को और खासतौर पर रेलगाडिय़ों के संचालन को अगल कर दिया जाए और उसके दरवाजे निजी खिलाडिय़ों के लिए खोल दिए जाएं। बहरहाल, भारत में अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में इस रास्ते पर चले जाने का अब तक का अनुभव तो यही दिखाता है कि निजी क्षेत्र के पक्ष में ऐसा बदलाव, खासतौर पर तब जबकि  उसके  लिए एक अनुकूल नियमनकर्ता का सहारा भी उपलब्ध हो, एक बार शुरू होने के बाद ही खुद ब खुद गति पकड़ लेगा और कार्पोरेट खिलाडिय़ों को, जिनमें विदेशी कंपनियां भी शामिल हैं, जिनके लिए अब इजाजत दी जा चुकी है, इस क्षेत्र में बोलबाला कायम करने की स्थिति में पहुंचा देगा। इसमें किसी शक-शुबहे की गुंजाइश नहीं है कि यह निजीकरण के सिवा और कुछ नहीं है।
एक विचारधारात्मक
नुस्खा
          बेशक, इस रिपोर्ट और इसकी आलोचनाओं के बलाघात की सभी आलोचनाओं को देबराय कमेटी के सदस्यों द्वारा, भाजपा की सरकार द्वारा और उसके कार्पोरेट तथा अन्य ढिंढोरचियों द्वारा या तो वामपंथ की अतिवादी प्रतिक्रिया के रूप में पेश किया जा रहा होगा या फिर नेहरूवादी-समाजवादी दौर के गये-बीते विचारों विचारों से निकली आलोचनाओं के रूप में। लेकिन, वास्तव में सचाई इससे ठीक उल्टी है। इस रिपोर्ट के नुस्खे तथा उनके पीछे के तर्क वास्तव में विचारधारा विशेष से संचालित, फार्मूलाबद्घ नवउदारवादी नुस्खे हैं, जो सरकारी स्वामित्व को सारी समस्याओं की जड़ मानते हैं और निजीकरण को इन सभी बीमारियों रामवाण उपचार मानते हैं। यह इस तथ्य से भी साफ हो जाता है कि रिपोर्ट में अलग से एक अध्याय जोडक़र उसमें अनेक देशों में रेलवे के पुनर्गठन का संक्षिप्त विवरण तो दिया गया है, लेकिन उसमें कोई खास सबक नहीं लिए गए हैं और खासतौर पर न तो ब्रिटिश रेलवे के निजीकरण के सत्यानाशी परिणामों से कोई सबक लिए गए हैं और न योरप में तथा अन्य जगहों पर रेल परिवहन के मॉडलों की विविधता से कोई सबक लिए गए हैं।
          रिपोर्ट में भारतीय रेलवे कामों के आधार पर टुकड़े करने और दूसरे सभी काम हाथ से जाने के बाद बची-खुची भारतीय रेलवे के नाम की सत्ता को मुख्य रूप से रेलपथ के निर्माण तथा रख-रखाव तक सीमित करने और दूसरी ओर रेल डिब्बों व इंजनों आदि का उत्पादन, ट्रेनों का संचालन, दोनों के ही दरवाजे निजी क्षेत्र के लिए खोलने और अधिकांश अन्य गैर-बुनियादी (नॉन कोर) कहलाने वाली गतिविधियां, जिनमें रेल सुरक्षा तथा कर्मचारियों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा तथा आवास सेवाएं भी शामिल हैं, काटकर अलग करने या उनको आउटसोर्स करने का रास्ता दिखाया गया है। इसके साथ ही इस विशाल तथा जटिल काम को अंजाम देने के लिए रिपोर्ट में, तैयारी के अनेक कदम भी सुझाए हैं, जो पांच साल के दौरान उठाए जाने हैं।
          इनमें से पहला बदलाव तो रेलवे में व्यापारिक गणना की पद्घतियों में ही किया जाना है, जिससे इस रिपोर्ट के अनुसार रेलवे के विभिन्न कामों की वास्तविक वहनीयता सामने आएगी, जिसमें खास-खास सेवाओं तथा रूटों की सामाजिक कीमत भी शामिल होगी। रिपोर्ट में यह सिफारिश की गयी है कि सामाजिक सेवा जिम्मेदारियों को (जिनके लिए रिपोर्ट में विचित्र तरीके से पी एस ओ के संक्षिप्त नाम का प्रयोग किया गया है) पूरी तरह से व्यापारिक तकाजों से अलग किया जाना चाहिए और अगर कोई सब्सीडी देना जरूरी हो तो ऐसी सब्सीडी सरकार द्वारा संघीय बजट से दी जानी चाहिए न कि उसका बोझ रेलवे द्वारा उठाया जाना चाहिए।
          दूसरा प्रस्तावित बदलाव यह है कि ‘स्वतंत्र’  नियमनकर्ता कथित रूप से समान प्रतिस्पद्र्घा सुनिश्चित करेगा, प्रौद्योगिकीय मानकों व सुरक्षा नियमन का निर्णय करेगा, सेवा की दरें तय करेगा तथा निजी ट्रेन ऑपरेटरों द्वारा भरी जाने वाली ढांचागत पहुंच की फीस तय करेगा। रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि सरकारी रेलवे पुलिस का खर्चा पूरी तरह से राज्य सरकारों द्वारा उठाया जाए, जबकि अब तक इसका 50 फीसद बोझ रेलवे उठाती है। इसके साथ ही यह भी सुझाया गया है कि विकेंद्रीकृत रेलवे के प्रबंधकों को इसका चुनाव करने का मौका दिया जाना चाहिए कि वे सुरक्षा के काम के लिए रेलवे सुरक्षा बल का प्रयोग करना चाहेंगे या निजी सुरक्षा एजेंसियों का।
 
निजीकरण और भारतीय अनुभव
          जहां तक कर्मचारियों के लिए रेलवे की सामाजिक सेवाओं का सवाल है, रिपोर्ट में यह सुझाया गया है कि रेलवे कर्मचारियों के लिए निजी शिक्षा व चिकित्सा संस्थाओं में सब्सीडी देने तक खुद को सीमित रखना चाहिए, जैसाकि बढ़ते पैमाने पर सरकार द्वारा तथा सार्वजनिक उद्यमों द्वारा भी किया जा रहा है। सभी जानते हैं कि यह विकल्प कितना महंगा पड़ता है और इसे अपनाकर सार्वजनिक शिक्षा व  स्वास्थ्य संस्थाओं को ही कमजोर किया जा रहा होता है। ये सभी सुझाव बड़ी मुस्तैदी से नवउदारवादी नियम-कायदों का ही अनुसरण करते हैं। सारत: यही रास्ता दिखाया जा रहा है कि बुनियादी ढांचा खड़ा करने का सारा खर्चा शासन द्वारा किया जाए और इस खर्चे के बल पर संबंधित सेवाओं के संचालन से जो भारी मुनाफे आएंगे, सब के सब निजी खिलाडिय़ों की तिजोरियों में पहुंचा दिए जाएं।
          सिद्घांत के स्तर पर कोई चाहे कुछ भी दावे करे, भारत के अब तक के अनुभव से यह साफ है कि यह निजीकरण व्यवहार में किस तरह से काम करने जा रहा है। बिजली के वितरण के निजीकरण का उदाहरण लिया जा सकता है। इस मामले में नियमनकर्ता ‘‘स्वतंत्र’’ तो किसी भी तरह से साबित नहीं हुआ है। उल्टे उस पर तो खासतौर पर इसका जिम्मा रहा है कि निजी बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) को बढ़ावा दे तथा उनकी मदद करे और संतुलन को बहुत ही स्पष्टï रूप से उनके पक्ष में झुका दे। इसी प्रकार, व्यापारिक एकाउंटिंग खासतौर पर इसके लिए कुख्यात है कि इसमें ढांचागत खर्चों के लिए बिल्कुल अपारदर्शी तरीेके से कटौतियां की जाती हैं, लेकिन नियमनकर्ताओं द्वारा अक्सर उन्हें ज्यों का त्यों मान लिया जाता है और इसके आधार पर अक्सर ऊंची दरें तय कर दी जाती हैं। डिस्कॉम शायद ही किसी भी माने में जवाबदेह होते हैं। नियमनकर्ताओं द्वारा उनके नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक तक से ऑडिट की इजाजत नहीं दी जाती है और दूसरी ओर, हितधारकों के रूप में उपभोक्ताओं को सिरे से अनदेखा ही कर दिया जाता है। इसके बाद, सरकार पर इसका जिम्मा आ जाता है कि वह चाहे तो उपभोक्ताओं को सब्सीडी देकर प्रभावी दरें कुछ कम कर सकता है, जैसाकि मिसाल के तौर पर दिल्ली सरकार कर रही है। निजी इजारेदारियां, सार्वजनिक इजारेदारियों के मुकाबले बदतर ही साबित हो सकती हैं।
          यह मानने का कोई कारण नहीं है कि यही पैटर्न, भारतीय रेलवे के निजीकरण में भी दुहराया जाएगा। देबराय कमेटी की रिपोर्ट में इन आशंकाओं को सीधे-सीधे दर्ज तो किया गया है, लेकिन बस इतना कहकर काम चला लिया गया है कि रेलवे का नियमनकर्ता सब ठीक कर देगा। लेकिन, सचाई इससे ठीक उल्टी है। वास्तव में आसानी से इसका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है कि निजी ऑपरेटर हर हाल में अपनी लागतें बढ़ाकर दिखा रहे होंगे और इसके चलते लगातार किराए-भाड़े बढ़ाए जा रहे होंगे, जैसाकि निजी बिजली वितरण के मामले में हो रहा है। दूसरी ओर, अलाभकर रूटों पर, वे चाहे सामाजिक रूप से कितने ही जरूरी क्यों न हों, निर्ममता से तलवार चलायी जा रही होगी। इसकी आसानी कल्पना की जा सकती है कि ऐसे 90 फीसद से ज्यादा रेल यात्रियों की क्या गत बनेगी जो अपनी यात्रा के लिए आज भी साधारण स्लीपर डिब्बों पर या फिर अनारक्षित डिब्बों पर ही निर्भर हैं। उन्हेें तो बची-खुची भारतीय रेलवे के ही भरोसे छोड़ दिया जाएगा और इसका बोझ शासन पर यानी करदाताओं पर ही डाला जा रहा होगा। ढांचागत निवेश तथा रख-रखाव का सारा बोझ शासन पर ही डाल दिया जाएगा, जबकि ढ़ाचागत सुविधा तक पहुंच की दरें बहुत कम रखी जा रही होंगी। इस तरह, निजीकरण की या उदारीकरण की प्रक्रिया पूरी होने पर, उपभोक्ताओं के लिए सेवाएं और महंगी हो चुकी होंगी, शासन को ‘पुराने बुरे जमाने’ के मुकाबले कहीं ज्यादा बोझ उठाना पड़ रहा होगा और निजी ऑपरेटर जमकर अपनी तिजोरियां भर रहे होंगे।
 
रेलवे के निजीकरण का ब्रिटेन का कडुआ अनुभव
 
          किसी को लग सकता है कि हम निजीकरण के दुष्परिणामों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखा रहे हैं। इसलिए, बेहतर होगा कि हम एक नजर ब्रिटिश रेल के निजीकरण के अनुभवों के अध्ययन पर डाल लें, जोकि वास्तव में देबराय कमेटी के लिए रोल मॉडल ही रहा है। यह अनुभव अनेक स्वतंत्र अध्ययनों के रूप में सामने आ चुका है, जिनमें से कुछ तो खुद ब्रिटिश सरकार द्वारा भी प्रायोजित किए गए हैं।
          ब्रिटिश रेलवे के निजीकरण के हिस्से के तौर पर, रेलवे के बुनियादी ढांचे के संचालन के 1993 में जिस रेलट्रैक पीएलसी का गठन किया गया था, भारी खर्चो और निजी ट्रेन ऑपरेटरों से कम उगाही के बोझ तले, 2001 तक बाकायदा बैठ चुकी थी। उसकी जगह पर आयी नैटवर्क रेल पर कर्ज का बोझ, 2002-03 के 9,60 करोड़ पाउंड स्टर्लिग के स्तर से बढक़र 2012 तक करीब 3,000 करोड पाउंड तक पहुंच गया और ब्याज का खर्चा ही, रेल पथों के रख-रखाव के खर्चे से ऊपर निकल गया। दूसरी ओर, निजी ऑपरेटरों की मांग पर रेल पथ तक पहुंच की दरें लगातार घटायी जा रही थीं, जिससे उसकी आय और घट रही थी। योरपीय यूनियन के सिद्घांतों का अनुसरण करते हुए, कर्ज का सारा का सारा बोझ ही आगे चलकर, सरकार के बजट पर डाल दिया गया। इसका नतीजा यह है कि आज करदाताओं को रेलवे के लिए, निजीकरण से पहले के दिनों के मुकाबले, दोगुना बोझ उठाना पड़ रहा है।
          इसके ऊपर से 2,363 स्टेशनों और 266 रूटों को यानी ब्रिटेन के रेल के कुल ताने-बाने के करीब एक-तिहाई को, अलाभकर घोषित कर बंद कर दिया गया। दूसरी ओर, यात्रियों के लिए सेवाएं महंगी होने के बावजूद, पहले से बदतर हो गयीं। दफ्तर आने-जाने वालों को खासतौर पर बहुत भीड़-भाड़ के बीच यात्रा करनी पड़ रही थी और मुश्किल से खड़े होने की जगह मिल पाती थी। लेकिन, निजी ऑपरेटर ट्रेनें बढ़ाने के लिए तैयार ही नहीं थे। इस तरह, निजी ऑपरेटरों की तिजोरियों में मुनाफ के ढ़ेर लग रहे थे, जबकि यात्री एक-दूसरे पर ढेर हो रहे थे! औसतन ब्रिटिश रेलों में किराए आज महाद्वीप योरप से करीब 30 फीसद ऊपर हैं। याद रहे योरप में, मिसाल के तौर पर फ्रांस, जर्मनी आदि में रेल सेवाएं अब भी राजकीय निगमों द्वारा चलायी जा रही हैं। प्रसंगवश बता दें कि खुद ग्रेट ब्रिटेन में भी आधी से ज्यादा रेल सेवाएं इन योरपीय राजकीय निगमों द्वारा ही चलायी जा रही हैं! जैसाकि किसी ने कहा भी था, थैचरवादी अंथमतवाद का तकाजा है कि ब्रिटेन मेें ब्रिटिश सार्वजनिक उद्यम तो नहीं चल सकते हैं, लेकिन दूसरे देशों के सार्वजनिक उद्यम चल सकते हैं।
          यह विडंबनापूर्ण है और नवउदारवादी अंधमतवाद के लिए बहुत मुश्किल खड़ी करने वाला भी है कि ब्रिटेन में जो इकलौती शासन द्वारा संचालित रेल सेवा बची है--ईस्ट कोस्ट रेल--सबसे मुनाफादेह रेल सेवाओं में है! उसने लगातार, अन्य 15 निजी रेल सेवाओं के मुकाबले शासन से कम सब्सीडी ली है और 2009 से 2014 के बीच, सरकारी खजाने में पूरे 1 अरब पाउंड जमा कराए हैं, जबकि इन्हीं वर्षो में पांच सबसे महंगी निजी रेल सेवाओं ने, शासन से  पूरे 3 अरब डालर की सब्सीडी वसूल की थी! वास्तव में इस सार्वजनिक रेल सेवा की आर्थिक कामयाबी से ब्रिटिश कंजर्वेटिव सरकार इतनी शर्मिंदा है कि वह इस रेल सेवा का निजीकरण करने पर ही तुली हुई है! यूगोव के एक जनमत सर्वे के अनुसार, 68 फीसद ब्रिटिश नागरिक राष्टï्रीयकृत ब्रिटिश रेल की वापसी चाहते हैं। यह भी गौरतलब है कि स्कॉट जनगण के बीच हुए जनमत संग्रह में, स्वतंत्रतावादी पक्ष के प्रचार का एक मुद्दा यह भी था कि स्कॉटलेंड में रेलवे का दोबारा राष्ट्रीयकरण किया जाए!
 
पुनर्गठन के अनेक मॉडल हैं
 
          बेशक, भारतीय रेलवे में अनेक गड़बडिय़ां हैं। रेलवे के पुनर्गठन की, उसकी संचालन कुशलताओं में तथा सुरक्षा में सुधार की वाकई काफी संभावनाएं हैं, लेकिन देबराय कमेटी इन इस पहलू को पूरी तरह से और आश्चर्यजनक तरीके से अनदेखा ही कर दिया है। इसी प्रकार, रेलवे से जुड़ी विभिन्न सेवाओं में तथा रेल डिब्बों-इंजनों आदि के निर्माण में भी, निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी लाभदायक भी साबित हो सकती है। लेकिन, यह तभी संभव है कि पुनर्गठन का काम व्यवहारवादी तरीके से तथा खुले दिमाग से किया जाए। इसके लिए खास विचारधारा से प्रेरित नुस्खों के बजाए ऐसे मॉडलों का सहारा लिया जाना जरूरी है जो भारतीय परिस्थितियों तथा जरूरतों के लिए सबसे उपयुक्त हों और जिनमें खासतौर पर कम आर्थिक सामथ्र्य वाले यात्रियों की विशाल संख्या के हितों को ध्यान में रखा जाए। देबराय कमेटी ने, पहले ही पिट चुके निजीकरण के ब्रिटिश मॉडल की नकल करते हुए, भारतीय रेलवे की समस्याओं का जो उपचार सुझाया है, बीमारी से भी बुरा साबित होने जा रहा है।
          पिछले करीब तीन दशकों में अर्थव्यवस्थाओं की प्रकृति में आए बदलावों के चलते और परिवहन के विभिन्न साधनों के बीच प्रतिस्पद्र्घा तथा यात्रियों की व माल ढुलाई करने वालों की बदलती जरूरतों के चलते, रेल परिवहन सेवाओं के पुनर्गठन की दुनिया भर में महसूस की जा रही जरूरत के जवाब में, पुनर्गठन के अनेक मॉडल सामने आए हैं। वास्तव में इसके इतने सारे मॉडल मौजूद हैं कि देखकर हैरत होती है।
          मिसाल के तौर पर जर्मनी में रेलवे के पुनर्गठन के पीछे मुख्य मंतव्य यह था कि रेलवे की ओर कहीं ज्यादा यात्रियों को तथा माल ढुलाई के काम को खींचा जाए और खासतौर पर क्षेत्रीय रूटों के लिए ऐसा किया जाए क्योंकि सडक़ परिवहन ने उसके ट्रैफिक में भारी सेंंध लगायी थी। भारत में भी ऐसी ही स्थिति है। यहां तो पिछले पांच दशकों में और रेल और सडक़ परिवहन ट्रैफिक का अनुपात पूरी तरह से उलट ही गया है और जाहिर है कि रेलवे के खिलाफ पलटा है। बहरहाल, खनिज ईंधन की बढ़ती लागतों, स्थानीय वायु प्रदूषण और कार्बन उत्सर्जन घटाने की जरूरत, सब का तकाजा है कि भारतीय परिवहन में रेलवे के अनुपात में तेजी से बढ़ोतरी की जाए। जर्मनी ने अपनी एकीकृत डॉइश बाह्नï (जर्मन रेल) को राजकीय स्वामित्व वाली दो इकाइयों में बांटा था, रेलवे के बुनियादी ढांचे को संभालने वाल डीबी नैत्ज और रेल सेवाओं के संचालन तथा खासतौर पर विभिन्न शहरों के बीच चलने वाली यात्री सेवाओं को संभालने के लिए, जिसमें बहुत ही सफल तीव्र गति रेल सेवा (आइ सी ई भी शामिल है), डीबीएजी। डीबीएजी में क्षेत्रीय यात्री सेवाओं को संभालने वाली डीबी रेजियो तथा माल ढुलाई को संभालने वाली डीबी शेंके भी शामिल हैं। डीबीएजी एक मुक्त पहुंच व्यवस्था में निजी ऑपरेटरों के साथ प्रतियोगिता करती है और ब्रिटेन समेम अनेक योरपीय देशों में भी रेल सेवाओं का कारोबार कर रही है।
          उधर हालैंड में राजकीय स्वामित्ववाली नीदरलैंड रेलवे ही सबसे बड़ी ऑपरेटर है और लंबी दूरी की रेल सेवाओं पर उसकी इजारेदारी है। फ्रांस में वर्तमान सोशलिस्ट सरकार ने, रेलवे के निजीकरण के रुझान को पलट दिया है। याद रहे कि फ्रांसीसी बहुराष्ट्रीय रेलवे कंपनी वियोला द्वारा जो योरपीय यूनियन के कई सदस्य देशों में रेलवे का संचालन कर रही है, फ्रांसीसी रेलवे के भी निजीकरण के लिए दबाव डाला जा रहा था। एसएनएफसी का बुनियादी ढ़ांचे तथा रेलवे के संचालन को संभालने वाली दो अलग-अलग सत्ताओं मेें विभाजन जरूर किया गया है, लेकिन एनएनएफसी देश में रेलवे की एकमात्र ऑपरेटर बनी हुई है और धीरे-धीरे फिर से अपने दोनों बाजुओं को आपस में जोड़ती जा रही है। यहां दोनों बाजुओं के बीच पारस्परिक अनुकूलता को, कुशलताओं में बढ़ोतरी में मददगार के रूप में देखा जा रहा है, न कि उसके विरोधी के रूप में। एसएनएफसी की कुशलताएं तथा लागतें प्रतिस्पद्र्घा के बजाए सामाजिक नियंत्रण के अन्य रूपों के लिए भी काफी अनुकूल साबित हुई हैं, जैसे प्रांतीय सरकारों के पक्ष में उल्लेखनीय विकेंद्रीकरण तथा उन्हें हासिल हुई बहुत अनुकूल शर्तें।
 
विकेंद्रीयकरण मददगार हो सकता है बशर्ते...
 
          विकेंद्र्रीकरण के स्पेन में भी अच्छे नतीजे आए हैं। वहां मिसाल के तौर पर बाकू प्रांत की वामपंथी रुझान की सरकार, अपनी अलग यात्री रेल सेवा, इयूस्कोट्रेन चला रही है। उसमें न सिर्फ स्थानीय रूप से निर्मित डिब्बों तथा इंजनों का उपयोग किया जा रहा है बल्कि उसने सफलता के साथ रेल पथ को दुहरा भी किया है और नये स्टेशन भी जोड़े हैं। उधर इटली में हालांकि  रेलवे के विनियंत्रण के मॉडल पर चला जा रहा है, जिसके तहत राजकीय स्वामित्ववाली रेलवे, ट्रेनइतालिया को अलग-अलग शहरों को जोडऩे वाले रूटों पर निजी ऑपरेटरों से प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है, फिर भी वहां अनेक ऊपर से नीचे तक एकीकृत क्षेत्रीय रेलवे काम कर रही हैं, जिनके डिब्बे-इंजन आदि, प्रांतीय परिषदों की संपदा हैं। स्केंडिनेविया में भी, रेलवे के बुनियादी ढांचे को उसकी विभिन्न सेवाओं से अलग किया जाना कारगर साबित हुआ है, लेकिन इसलिए कि इस तरह बनी इकाइयां ज्यादातर सार्वजनिक स्वामित्व में हैं और रेलवे का संचालन बहुत ही विकेंद्रीयकृत तरीके से हो रहा है, जहां संचालन की बागडोर सामुदायिक नेतृत्ववाली स्थानीय रेलवे या प्रांतीय अधिकारियों के हाथों में है।
          लेकिन, दुर्भाग्य से योरपीय यूनियन द्वारा नवउदारवादी अंधमतवाद को ही थोपा जा रहा है। वह कानून बनाकर योरपीय यूनियन के सभी सदस्य देशों पर एक अनिवार्यता के रूप में रेलवे में प्रतिस्पद्र्घा भी थोप सकता है। यह इसके बावजूद है कि योरपीय यूनियन के कमीशन की रिपोर्ट में यह कबूल किया गया है कि ‘‘निजीकरण या विनियंत्रण के लाभों के पक्ष में साक्ष्य ‘‘दुविधापूर्ण’’ हैं। इसी रिपोर्ट में अनिवार्य टेंडरिंग को एक ‘‘राजनीतिक चुनाव’’ कहा गया है।
          कहने की जरूरत नहीं है कि देबराय कमेटी अगर चाहती तो कुशल, जवाबदेह तथा सार्वजनिक स्वामित्ववाली रेल प्रणालियों के उक्त अनेक मॉडलों का अध्ययन कर सकती थी और उससे सीखकर, अपनी सिफारिशें कर सकती थी। लेकिन, दुर्भाग्य से उसने तो नवउदारवादी रास्ते पर ही चलने का और निजीकरण के अंधमतवाद को ही अपनाने का फैसला लिया है। अच्छा होगा कि मोदी सरकार देबराय कमेटी की सिफारिशों को खारिज कर दे। लेकिन, वह शायद ही ऐसा करे क्योंकि उसकी नजरें तो शेयर बाजारों और विदेशी निवेशकर्ताओं की तालियों की ओर ही लगी हुई हैं। लेकिन, जब रेलवे को एक सार्वजनिक सेवा के बजाए आर्थिक सत्ता की तरह ही देखा जा रहा हो और मुनाफों को जनता के हितों से ऊपर रखा जा रहा हो, इसके सिवा और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?                             0