एक साल बुरा हाल - भाजपा सरकार का खतरनाक एजेंडा सामने आया किसानों को खेती से खदेडऩे का खेल

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एक साल बुरा हाल - भाजपा सरकार का खतरनाक एजेंडा सामने आया
किसानों को खेती से खदेडऩे का खेल
- वीजू कृष्णन
भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में इसका वादा किया गया था और खुद नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि भाजपा की सरकार किसानों के ‘अच्छे दिन’ लाएगी और किसानों की आत्महत्याएं खत्म कराएगी। वादा किया गया था कि भाजपा की सरकार खेती के लिए तथा ग्रामीण विकास के लिए सार्वजनिक निवेश बढ़ाएगी, किसानों के लिए उत्पादन लागत के ऊपर से 50 फीसद दिलाकर खेती की लाभकरता बढ़ाने के लिए कदम उठाएगी, खेती की लागत सामग्री व ऋण सस्ते मुहैया कराएगी, खेती में आधुनिकतम प्रौद्योगिकियां तथा ज्यादा पैदावार देने वाले बीज लाएगी, मनरेगा को खेती से जोड़ेगी, अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं से फसल के नुकसान की भरपाई करने के लिए फसल बीमा लागू करेगी, ग्रामीण ऋण सुविधाओं का विस्तार करेगी, किसानों को विश्व बाजार में कीमतों में बहुत भारी-उतार चढ़ावोंं से बचाने के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष कायम करेगी, आदि आदि।
वादे और कठोर सचाई
          भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में यह वादा भी किया गया था कि ‘‘भाजपा, राष्टï्रीय भूमि उपयोग नीति अपनाएगी, जो अनुपजाऊ जमीन के वैज्ञानिक अधिग्रहण तथा उसके विकास को देखेगी, किसानों के हितों की रक्षा करेगी और खाद्य उत्पादन के लक्ष्यों को तथा देश के आर्थिक लक्ष्यों को ध्यान में रखेगी।’’ 60 वर्ष से अधिक आयु के किसानों के लिए कल्याणकारी कदमों का और छोटे व सीमांत किसानों व खेत मजदूरों के लिए कल्यणकारी कदमों का भी भरोसा दिलाया गया था। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में और नरेंद्र मोदी के चुनावी भाषणों में शब्दश: भारतीय किसानों की ‘‘मन की बात’’ को सूचीबद्घ ही किया जा रहा था। किसान इससे ज्यादा और मांग भी क्या सकते थे?
          मोदी के नेतृत्ववाली भाजपा सरकार के राज में खेती का संकट और बढ़ गया है। खेती की वृद्घि दर में भारी गिरावट हुई है और यह दर 2014 के 3.7 फीसद से घटकर, सिर्फ 1.1 फीसद पर आ गयी है। 2014 के दिसंबर में, जब मोदी सरकार के छ: महीने ही हुए थे, मध्यावधि आकलन में किसानों की आत्महत्याओं में 26 फीसद बढ़ोतरी हुई थी। भाजपा शासित महाराष्टï्र में यह बढ़ोतरी 40 फीसद थी। 2014 के अगस्त से 2015 के बीच किसान आत्महत्याओं का आंकड़ा तेजी से बढक़र 1,373 पर पहुुंच गया। बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टिï से देश भर में करीब 2 करोड़ हैक्टेयर में खड़ी फसलों का भारी नुकसान होने और सरकार के इस संकट के प्रति उदासीन बने रहने के चलते, किसानों की आत्महत्याओं में और तेजी आयी है। हरियाणा, पंजाब, गुजरात, प0 बंगाल, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी अभूतपूर्व पैमाने पर किसान आत्महत्याएं हुई हैं। हरियाणा में ही 2015 के अप्रैल के बाद से 60 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। बजाए इसके कि इन मुसीबत के मारे किसानों के परिवारों की तकलीफों को दूर किया जाता, उन्हें असरदार तरीके से मुआवजा दिया जाता और किसानों के बीच भरोसा पैदा करने के लिए फौरन कदम उठाए जाते, हरियाणा की भाजपायी सरकार के कृषि मंत्री ने घोर असहिष्णुतापूर्ण टिप्पणी करते हुए, हताशा में आत्महत्या करने वाले किसानों को ‘‘कायर’’ और ‘‘अपराधी’’ ही करार दे दिया। महाराष्टï्र में भी भाजपा के मंत्रियों ने ऐसी ही असंवेदनशील टिप्पणियां की थीं। केंद्रीय कृषि मंंत्री ने संसद में यह दावा किया किया था कि हरियाणा में एक भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है। भाजपा की सरकार की तरह की आपराधिक नकार की मुद्रा ही अपनाए हुए है और न सचाई को स्वीकार कर रही है और न इस सिलसिले में कुछ भी कर रही है।
 
किस का साथ किस का विकास
          अपने चुनाव प्रचार अभियान के भाषणों में मोदी का सबसे ज्यादा जोर इस पर था कि उत्पादन लागत के ऊपर से कम से कम 50 फीसद अतिरिक्त दिलाने के जरिए, किसानों के लिए लाभकरता बढ़ाायी जाएगी। मोदी सरकार ने सबसे बड़ा धोखा इसी मामले में किया है। भाजपा की सरकार ने गेहूं तथा धान के दाम में सिर्फ 50 रु0 प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की है और ज्यादातर दूसरी पैदावारों के मामले में तो न्यूनतम समर्थन मूल्य में कोई बढ़ोतरी ही नहीं की है। 20 फरवरी 2015 को इस भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहा था कि किसानों को उत्पादन लागत पर 50 फीसद अतिरिक्त देना संभव ही नहीं है। इसके ऊपर से लागत सामग्री के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं और भाजपा की सरकार ने उनके दाम पर नियंत्रण रखने के लिए कुछ किया ही नहीं है।
          इस तरह खेती की पैदावार के दाम तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य अलाभकर ही बने हुए हैं और उनसे खेती की लागत तक पूरी नहीं होती है। इसके ऊपर से सरकारी खरीद की व्यवस्था को तेजी से ध्वस्त किया जा रहा है और निजी खिलाडिय़ों को मुसीबत के मारे किसानों का शोषण करने का मौका  दिया जा रहा है। कटे पर नमक छिडक़ने वाली बात यह कि भाजपा की केंद्र सरकार ने यह फरमान भी जारी कर दिया है कि कोई भी राज्य गेहूं या धान के लिए तय किए गए समर्थन मूल्य पर कोई बोनस नहीं दे सकता है और जो भी राज्य ऐसा बोनस देगा, वहां से भारतीय खाद्य निगम खरीदी नहीं करेगा। यह फरमान इस बहाने से किया गया है कि इस तरह का बोनस ‘‘बाजार को बिगाड़ता’’ है।
          मोदी सरकार ने किसानों से खाद्यान्न की सरकारी खरीद करने वाली एजेंसी, भारतीय खाद्य निगम को ध्वस्त करने और 2013 के खाद्य सुरक्षा कानून के अंतर्गत मिलने वाली खाद्य सुरक्षा को कमजोर करने के कदम भी तेज कर दिए हैं। हालांकि, विश्व व्यापार संगठन में यह सरकार इसका दिखावा कर रही थी कि देश के किसानों के हितों तथा खाद्य सुरक्षा से कोई समझौता नहीं किया जाएगा, वास्तव में यह सरकार खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम तथा सार्वजनिक भंडारण कार्यक्रमों को कमजोर करने के जरिए, ठीक वहीं सब कर रही है, जिसकी मांग अमरीका तथा योरपीय यूनियन और विश्व व्यापार संगठन द्वारा की जा रही थी। किसी भी तरह का सार्थक मूल्य स्थिरीकरण कोष कायम करने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। साफ है कि यह सरकार किसानों की कीमत पर बड़े कृषि उद्यमियों और व्यापारियों के ही हितों की रक्षा करना चाहती है।
निवेश में कटौतियां
          खेती में और ग्रामीण विकास में सार्वजनिक निवेश में भारी कटौती की गयी है। कृषि ऋणों तक किसानों के बड़े हिस्से की पहुंच ही नहीं है और लुटेरे सूदखोर महाजन किसानों को बेरोक-टोक लूट रहे हैं। संस्थागत ऋणों का बड़ा हिस्सा कृषि कारोबारियों और ‘‘शहरी काश्तकारों’’ ने ही हथिया लिया है। राष्टï्रीय नमूना सर्वेक्षण का एक ताजा सर्वे (70 वां चक्र, जनवरी-दिसंबर 2013), ‘भारत में खेतिहर परिवारों की स्थिति का सर्वे’ बताता है कि भारत में 60 फीसद से ज्यादा ग्रामीण परिवार कर्ज के बोझ के नीचे दबे हुए हैं और आंध्र प्रदेश में ऐसे परिवारों का हिस्सा 92.9 फीसद है। फिर भी भाजपा की सरकार ने ग्रामीण परिवारों को कर्ज के बोझ से राहत दिलाने के लिए, संस्थागत ऋणों तक उनकी पहुंच बढ़ाने के लिए या सस्ते ऋण मुहैया कराने के लिए कुछ भी नहीं किया है। 2014-15 के बजट में कृषि तथा सहायक गतिविधियों के लिए 11,531 करोड़ रु0 का आवंटन रखा गया था, जिसमें बहुत मामूली बढ़ोतरी कर, 2015-16 के बजट में इसे सिर्फ 11,657 करोड़ रु0 किया गया है। जाहिर है कि वास्तविक मूल्य के हिसाब से इसमें कोई बढ़ोतरी ही नहीं हुई है।
          मनरेगा में भारी कटौती की गयी है और उसके लिए फंड ही नही मिल रहे हैं। भाजपा की सरकार इसे मौजूदा 6,576 ब्लाक से घटाकर,  2500 ब्लाकों तक सीमित कर देना चाहती है। याद रहे कि 2014-15 में केंद्र और राज्यों की सरकारों ने मिलकर यह अनुमान लगाया था कि मनरेगा के तहत 227 करोड़ कार्यदिवस के रोजगार की मांग आयेगी और इस मांग को पूरा करने के लिए उसी वित्त वर्ष में 61,000 करोड़ रु0 के आवंटन की जरूरत होगी। लेकिन, भाजपा की सरकार ने 2014=15 के बजट में इसके लिए सिर्फ 34,000 करोड़ रु0 का आवंटन किया और इस तरह अनुमानित राशि का 45 फीसद पहले ही काट लिया। 2015-15 के बजट में मनरेगा के लिए सिर्फ 34,699 करोड़ रु0 का आवंटन किया गया है। यह वास्तविक जरूरत से बहुत ही कम है।
          इसी तरह छोटे तथा मंझले किसानों और खेत मजदूरों के लिए कुछ भी नहीं किया गया है, जो घटती आय और बढ़ती कीमतों की दुहरी चक्की में पिस रहे हैं। देश में 600 जिले हैं और इसे देखते हुए सिंचाई तथा ऑर्गनिक खेती के  लिए कुल 5,600 करोड़ रु0 का आवंटन, इन दोनों योजनाओं के लिए हर जिले के लिए औसतन 9 करोड़ रु0 का आवंटन बैठता है। इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इतने मामूली खर्च से न तो सिंचाई में कोई बढ़ोतरी हो सकती है और न ऑर्गनिक खेती को कोई बढ़ावा मिल सकता है।
धोखा ही धोखा
          अप्रत्याशित प्राकृतिक आपदाओं से फसलों के नुकसान की भरपाई करने के लिए चौतरफा कृषि बीमा योजना के वादे को भुला ही दिया गया है। हाल में आयी बेमौसमी बारिश तथा ओलावृष्टिï से हुई फसलों की भारी तबाही के बाद, भाजपा की सरकार ने पूरी तरह फसल तबाह होने का रकबा घटाकर वास्तविकता से करीब आधा कर दिया और इस तरह, करोड़ों किसानों को मुआवजे के दायरे से बाहर ही कर दिया। इसके बाद उसने करीब 12,000 रु0 प्रति एकड़ के मुआवजे का एलान किया और दावा किया कि यह अब तक का सबसे ज्यादा मुआवजा है। इस सिलसिले में यह उल्लेखनीय है कि हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा अन्य राज्यों में, जहां इस आपदा के बाद हताशा में किसानों ने आत्महत्याएं की हैं, ज्यादातर मामलों में किसानों को कोई मुआवजा ही नहीं मिला था। यह भी गौरतलब है कि हरियाणा में कुछ हिस्सों में तो खेती के लिए जमीन का किराया ही करीब 45,000 रु0 प्रति एकड़ बैठता है। पैदावार की बाकी जो लागत आती है, ऊपर से आती है। ऐसे में 12,000 रु0 प्रति एकड़ का मुआवजा मिलने के बाद भी, किसान के सिर पर तो कर्ज का भारी बोझ रहेगा ही। इसके ऊपर से देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों को मुआवजे के तौर पर 5 रु0, 63 रु0, 200 रु0 आदि के भी चैक दिए गए हैं। किसानों के सभी तबकों की आय में गिरावट का नतीजा यह हुआ है कि उन्हें अपनी परिसंपत्तियां बेचनी पड़ रही हैं और जहां ऐसा नहीं है वहां भी वे नयी प्रौद्योगिकी में, ट्रैक्टर आदि में और सिंचाई के बुनियादी ढांचे में निवेश नहीं कर पा रहे हैं।
          उधर भूमि अधिग्रहण कानून के मामले में भाजपा पूरी तरह से पल्टी मार गयी है। इस कानून पर अपने पहले के रुख से पलटते हुए भाजपा ने 2014 के दिसंबर में अध्यादेश के जरिए उक्त कानून में संशोधन थोप दिए। इन संशोधनों से कार्पोरेट मुनाफाखोरी के लिए और अचल संपत्ति के सट्टïाबाजार के लिए, किसानों की जमीनें लेना आसान हो जाएगा। वास्तव में इस सरकार ने 1894 के गुलामी के जमाने के भूमि अधिग्रहण कानून के सबसे दमनकारी प्रावधानों को ही वापस ला दिया है और अधिग्रहण के लिए उन पर स्वामित्व अधिकार रखने वाले किसानों और संबंधित भूमि पर निर्भर अन्य लोगों की सहमति हासिल करने की शर्त को हटा दिया है। इसके साथ ही इस तरह के अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव के अध्ययन की व्यवस्था को भी पूरी तरह से हटा दिया गया है।
          संशोधन कर जोड़ी गयी नयी धारा-10 (ए) के तहत, अनेक प्रकार की परियोजनाओं को उक्त शर्तों के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इनमें विशेष श्रेणी में रखे गए पांच आइटमों में औद्योगिक कॉरीडोर तथा सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के अंतर्गत आने वाली ढांचागत परियोजनाओं को भी रखा गया है। चूंकि ज्यादातर अधिग्रहण इन्हीं दो श्रेणियों में होता है, यह संशोधन 2013 में संसद द्वारा पारित कानून में रखी गयी न्यूनतम बचाव व्यवस्थाओं को भी पूरी तरह से नकारने का ही काम करेगा। इतना ही नहीं औद्योगिक कॉरीडोर की परिभाषा का विस्तार कर उसमें अधिसूचित सडक़ या रेल मार्ग के दोनों ओर की एक-एक किलोमीटर तक की जमीन ऐसे औद्योगिक कॉरीडोर के लिए जाने का प्रावधान शामिल कर लिया गया है। एक गणना के अनुसार, दिल्ली-मुंबई औद्योगिक कॉरीडोर के मामले में, जो देश के छ: राज्यों से होकर गुजरता है, कुल मिलाकर करीब 7 लाख वर्ग किलोमीटर यानी देश की खेती की कुल जमीन के 17.5 फीसद का, जबरिया अधिग्रहण किया जा रहा होगा।
          इस तरह की व्यवस्था में खाद्य सुरक्षा की रखवाली का भी कोई प्रबंध नहीं होगा क्योंकि बिना किसी रोक-टोक के उपजाऊ बहुफसली जमीनों का और असिंचित उत्पादक जमीनों का अधिग्रहण किया जा सकेगा। इसके साथ ही, भूमि के मालिकों तथा भूमि पर निर्भर दूसरे लोगों के पुनर्वास तथा पुनर्वसन की थोड़ी-बहुत भी व्यवस्था की सारी संभावनाओं को पूरी तरह से छोड़ दिया गया है। राष्टï्रीय और राज्य, दोनों ही स्तरों पर भूमि उपयोग नीति तय करने का कोई प्रस्ताव ही नहीं है। जमीन गंवाने वाले हरेक परिवार में से एक व्यक्ति को रोजगार दिलाने का सरकार के वादे का एक ही अर्थ है कि पूरे के  पूरे परिवार को उसके आय के मुख्य स्रोत से अलग करने के बाद, नाम के वास्ते परिवार में से एक व्यक्ति को रोजगार दे दिया जाएगा। इस मामले में भूमि पर निर्भर अन्य तबकों के लिए भी कोई प्रावधान ही नहीं है।
          साफ है कि इस एक साल में मोदी सरकार ने अपना हरेक  वादा तोड़ा है। मोदी के नेतृत्ववाली सरकार किसानों को कंगाल बनाने तथा बेदखल करने की और इस तरह उन्हें खेती छोडऩे पर मजबूर करने की सोची-समझी नीति पर चल रही है। इसी के हिस्से के तौर पर यह सरकार खेती के लिए सरकारी मदद से हाथ खींच रही है और आक्रामक तरीके से व्यापार उदारीकरण की नीति और अनेकानेक नवउदारवादी नीतियों पर चल रही है। अडानी, अंबानी आदि आदि के अच्छे दिन लाने के लिए, किसानों तथा खेत मजदूरों के हितों की बलि चढ़ायी जा रही है।                                                0