कॉर्पोरेट के मुनाफे के खुदा के सामने मजदूर को जिबह किया जा रहा है.- सत्यकी रॉय

×

Error message

The page style have not been saved, because your browser do not accept cookies.

एक साल बुरा हाल कॉर्पोरेट के मुनाफे के खुदा के सामने मजदूर को जिबह किया जा रहा है. सत्यकी रॉय मोदी सरकार श्रम सुधारों को लागू करने के लिए बहुत उत्सुक दिखाई दे रही है क्योंकि उद्योगपतियों की तरफ से इसकी मांग काफी लम्बे अर्शे की जा रही है. अक्तूबर 2014 में प्रधानमंत्री ने भारत में बनाओ नारे की रौशनी में श्रम के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा श्रम से जुड़े मुद्दों को मजदूरों के नजरिये से देखने की जरूरत है बजाय मालिकों के. हालांकि तथाकथित श्र्मयोगी के नारे के पीछे वास्तविक चिंता भारत में मजदूरों की भयावह हालत को संबोंधित करना नहीं था. बल्कि इसका इस्तेमाल तो ‘इंडिया इंक’ को संतुष्ट करना था जो उनके प्रति दृढ़ सरकार के समय में अपना बेहतर वक्त की उम्मीद लगाए बैठे हैं. जैसा कि देश में बहुमत श्रम शक्ति बिना किसिस काम के बैठी है इसलिए वह अतिरिक्त श्रम का फायदा उठाने की जुगत में हैं; लोग कम मजदूरी में गैर-मानवीय हालातों में काम करने को तैयार हैं. इसलिए भारत के नीचे के स्तर पर रहने की दौड़ जीतने के लिए एक आदर्श उम्मीदवार है. भारत में श्रम सुधारों का मतलब है मजदूर वर्ग के संस्थागत और कानूनी अधिकारों का सत्यानाश करना और दुनिया को बताना कि निरंकुश मुनाफा कमाने के लिए हमारा देश सबसे बेहतरीन जगह है. पहला कदम लघु कारखाना (रोजगार और ससेवाओं की अन्य हालातों का विनियमन) कानून, 2014 को पेश करना था. जिन कारखानों में 40 मजदूर तक काम करते हैं यह कानून उन्हें 16 श्रम कानूनों की पकड़ा से बाहर कर देता है जैसे फैक्ट्री एक्ट, औद्योगिक विवाद अधिनियम, ईएसआई अधिनियम औरमातृत्व लाभ अधिनियम आदि. फैक्ट्री एक्ट हाल ही में बधाई गयी श्रमिकों की संख्या (बिजली के साथ) 10 से 20 और 20 से 40 (बिना बिजली के) पर ही लागू होगा. इसका मतलाब यह है कि करीब 12.6 लाख मजदूर संगठित विनिर्माण क्षेत्र में जो कि भारत की कुल फेक्टारियों की संख्या के 65 प्रतिशत हिस्से में काम करते हैं और जिनमे 40 मजदूर से कम काम करते हैं वे फेक्टरी एक्ट के मुताबिक़ श्रम कानूनों के दायरे में नहीं आयेंगे. औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुसार अब तक जिन फेक्टरियों में 100 मजदूर काम कर रहे हैं उन्हें छटनी से पहले सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी. इस कानून के तहत अब यह सीमा 100 मजदूरों से 300 मजदूर कर दी गयी है. ये सुझाव दर्शाते हैं कि इन बदलावों से भारत की 93 प्रतिशत फेक्टारियों में बिना सरकार की अनुमति के मजदूरों की छटनी की जा सकती है. ठेका श्रम अधिनियम में संसोधन के अनुसार अब निजी और सार्वजनिक क्षेत्र में जो मजदूर श्रम कानून के दायरे में आयेंगे उनकी संख्या भे 20 से बढ़ाकर 50 कर दी गयी है. सरकार 'व्यापार करने में आसानी' की रफ़्तार को बढाने के लिए श्रम कानूनों पर व उसके कार्यान्वयन की निगरानी में ढील देना चाहती है. जब श्रम कानूनों की धज्जिया उड़ाने से मुनाफ़ा बढ़ता है कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि वे कारखाना मालिक खुद श्रम कानूनों के कार्यान्वयन पर ध्यान रखेंगे? लेकिन सरकार रिटर्न और रजिस्टरों के स्वरूपों को सरल बनाने के नाम पर उन्हें 16 बड़े श्रम कानूनों को लागू करने से बचा रही है. उद्योग इस तरह की आजादी का खवाब बड़े लम्बे समय से देख रहे हैं और मोदी सरकार भारतीय कंपनियों की साख पर निर्भर करती है! दुनिया में भारत में 14 वर्ष से कम आयु वाले सबसे ज्यादा बाल मजदूर है. ये बाल मजदूर कृषि, लघु कार्यशाला, सड़कों पर कूड़ा बीनने, कुली, गलियों में सामान बेचने वाले व्यवसायों में काम करने के साथ-साथ खतरनाक उद्योगों जैसे शीशा बनाने वाले उद्योग, खदानों, भवन निर्माण, कालीन बनाने, जरी बनाने तथा पटाखे बनाने जैसे उद्योगों में काम करते हैं. सरकार द्वारा प्रस्तावित बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) संशोधन विधेयक के जरिए बाल श्रम अधिनियम, 1986 को संसोधित करना चाहती है. यह प्रस्तावित विधेयक यद्दपि 14 वर्ष से नीचे के बच्चों के लिए बाल श्रम पूरी तरह प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव करता है वहीँ यह कानून उन बच्चों की इजाज़त देता है कि स्कूल के बाद के समय में वे अपने परिवार की साहयता के लिए काम कर सकते हैं.इस प्रावधान से वास्तव में अनुबंधित आधार पर घर में बाल श्रम रोजगार और उसे बाहर आउटसोर्स करना आसान होगा। भारत में एक बच्चे की कानूनी परिभाषा के बारे में कई व्याख्याएं मौजूद हैं. बाल श्रम कानून के मुताबिक़ 14 वर्ष के कम आयु वाला बालक है. बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र की कन्वेंशन के अनुसार वह व्यक्ति बालक है जिसकी आयु 18 वर्ष से कम है. प्रस्तावित विधेयक 'किशोर' जैसे टर्म का जिक्र करता है और इसका मतलब है वह व्यक्ति जिसकी उम्र 14 व 18 वर्ष के बीच में है. बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के अनुसार बालक वह व्यक्ति है जिसने 18 वर्ष की उम्र हाशिल नहीं की है. विधेयक किशोरों को खतरनाक व्यवसायों जैसे खदान, जव्लान्शीन पदार्थ या विस्फोटक पदार्थों से जुड़े व्यवसायों में काम करने की अनुमति नहीं देता है जैसा कि अनुसूची में परिभाषित किया गया है. अन्य शब्दों में 14 से 18 साल के बच्चों को गैर खतरनाक उद्योगों में काम करने की अनुमति देता है जो कि संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन का उल्लंघन है और यह कानून इसकी भी कमियां छोड़ देता है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को घरेलू इकाइयों में बिना रोक-टोक के काम करें. विधेयक हालांकि बाल श्रमिकों के पुनर्वास के प्रावधान के बारे में चुप है और 14 से 18 वर्ष के बाल श्रम के काम करने से उठे विवाद और उनकी काम करने के हालातों पर चर्चा के मामले में शांत है. माध्यम कार्ग के विचार तंत्र में श्रम कानूनों पर चर्चा नहीं होती है. बड़े पैमाने पर समाज में स्पष्ट चुप्पी शायद नव-उदारवादी शासन द्वारा और अपनी सांस्कृतिक मशीन के जरिए लगता है इन सुधारों के लिए एक सामाजिक मंजूरी का काम कर रही है. लेकिन सुधारों के प्रति इतनी प्रतिबद्धता वैचारिक ज्यादा है बजाये इसके कि अक्सर तर्क दिया जाता है कि तत्काल उद्देश्य की आवश्यकता के लिए है. सरकार सुधारों को बढ़ावा इसलिए दे रही है ताकि श्रम बाजार में मौजूदा 'कठोरता' को कम किया जा सके. लेकिन वास्तविकता में श्रम बाज़ार कितना ‘कठोर’ है? अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार व्यक्तियों के अनुपात में अनौपचारिक रोजगार में कार्यरत (जिसमें अनौपचारिक और औपचारिक क्षेत्र शामिल है) 2009-10 में गैर कृषि क्षेत्र एमिन इनकी संख्या 83.6 प्रतिशत थी जोकि चीन के (32.6%) , ब्राज़ील (42.2%) से ज्यादा है. इसका मतलब साफ़ है कि भारत में बहुमत मजदूर श्रम कानूनों के दायरे से बाहर हैं. अगर हम कृषि को सिमें शामिल कर ले तो करीब 93 प्रतिशत मजदूर उनके काम के लिए काननों सहायता से बाहर हैं. दुसरे, फेक्टरी खंड में (जोकि फेक्टरी एक्ट १९४८ में आते हैं,) या उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के अनुसार श्रमिकों की औसत की हिस्सेदारी कुल श्रमिकों का लगभग एक तिहाई है. इसलिए भी औपचारिक क्षेत्र में श्रमिकों के एक तिहाई हिस्से को मालिकों ने उन कानूनी हकों से दूर कर दिया है जो स्थायी मजदूरों पर लागू होते हैं. आखिर वह औसत श्रम लागत क्या है जिसे मालिकान ओर नीचे गिराना चाहते हैं? उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के डेटा के अनुसार 2012-13 में वेतन और अन्य सुविधाओं का औसत बहुत ही कम 2.17 प्रतिशत के स्तर पर था. क्या हम विश्विक स्तर पर प्रतियोगिता करने के लिए इसे और ज्यादा नीचे लाना चाहते हैं? 1980 के दशक में विनिर्माण उद्योग में पूरे मूल्य को जोड़ने के बाद(उत्पादन करने के अलावा) वेतन का औसत 26 प्रतिशत था और इस दशक के आधे में आते-आते यह 10 प्रतिशत रह गया और उसी समय में मुनाफा 5.3 प्रतिशत से बढ़कर 21.3 प्रतिशत हो गया. ये आंकड़े निश्चित रूप से साबित करते हैं कि वर्षों से श्रम द्वारा कमाए गए धन के महत्वपूर्ण हिस्से को उसने खो दिया है. इस परिवेश में शायद ही तर्कसंगत है कि श्रम सुधारों की दिशा में सरकार द्वारा अथक प्रयास 'उच्च'मजदूरी को नीचे लाने के उद्देश्य की आवश्यकता का कुछ लेना-देना है. यह तो लालची पूंजीपतियों के लिए सरकार नंगी सेवा है ताकि वे श्रम प्रक्रिया पर नियंतार्ण कर सके.