क्या अब हम सब चार्ली हेब्दो हैं?

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फ्रांस के चार्ली हेब्दो के दफ्तर पर अल-कायदा या आई.एस. से जुड़े आतंकवादियों द्वारा हमला जिसमें 12 लोग मारे गए और उनमे से कुछ जाने-माने कार्टूनिस्ट थे, बिना किसी शक के एक घृणित कार्य है जिसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है। यह घटना कुछ परेशान करने वाले सवाल खड़े करती है। क्या दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली “मैं चार्ली हूँ” की भावना “हेब्दो” के लिए एकजुटता का प्रदर्शन है? या यह उनके कार्टून्स की स्वीकृति भी है? आखिर यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता क्या है, क्या किसी व्यक्ति के गहराई से जमे विश्वास की खिल्ली उड़ाने या उसकी तौहीन करने का हक फरमाती है? इस्लाम और आतंकवाद में क्या फर्क है? लीबिया से सीरिया तक इस्लामिक आतंकवाद को फैलाने में फ्रांस की क्या भूमिका रही है? क्या पश्चिमी शक्तियों की पश्चिमी एशिया के अपने सहयोगियों के साथ जैसे – सऊदी अरब, खाड़ी देशों के अन्य राजतन्त्र, तुर्की और सबसे खास इजराइल के साथ संकुचित इस्लामिक ताकतों को बढाने में मिलीभगत नहीं रही है, फिर चाहे वह अल-कायदा हो, इराक में इस्लामिक स्टेट और सीरिया में अल शाम जिसे आई.एस.आई.एस. कहा जाता है, जिसे अब इस्लामिक स्टेट या इस्लाम के खलीफ़ा के नाम से जाना जाता है? क्या इन्होने इन ताकतों को पिछले सात दशकों से धन और हथियारों से सहायता नहीं की है?

 

अभिव्यक्ति की आजादी की बहस की परेशानी यह है कि जो भी इस हेब्दो वारदात की निंदा कर रहे हैं उन्हें खुद को हेब्दो घोषित करना होगा: “मैं चार्ली हूँ”। अभिव्यक्ति की आजादी की सुरक्षा करने का मतलब है की आप को अब उसकी सामग्री की भी सुरक्षा करनी पड़ेगी। यही परेशानी का सबब है, क्योंकि हेब्दो का ज्यादातर प्रकाशन इस्लाम पर हमला था। यह सच है कि हेब्दो अन्य धर्मों और धर्म से जुड़ी हस्तियों पर भी हमला करता है। लेकिन इस्लामोफोबिया के बारे में उनके कार्टूनों में  और अन्य में बहुत अंतर करना मुश्किल है जिसने पश्चिम को अपने शिकंजे में कस लिया है।

 

                                                                                                                                             

 

हेब्दो ने आसानी से टारगेट बनाए जाने वाले इस्लाम और मुहम्मद को अपना निशाना बना लिया। यहूदी हस्तियों पर हमले करने में उन्होंने काफी संयम दिखाया, वह इसलिए कि इजरायल के साथ एक अन-कहे प्रगतीशील वर्ग के सम्बन्ध अच्छे हैं: इसराइल (पी.इ.आई) को छोड़कर प्रोग्रेसिव है। हेब्दो को अदालत द्वारा उस वक्त दंडित किया गया जब, उसने "यहूदी विरोधी’ कार्टून के लिए अपने एक कार्टूनिस्ट को बर्खास्त कर दिया था। अभिव्यक्ति की आजादी का पश्चिम में यह एक दोहरा चरित्र है जिसने दुनिया के बेहतरीन कार्टूनिस्ट को धता बताया। और ग्लेन ग्रीन्वाल्ड बताते हैं। विभिन्न देशों में, अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी नहीं है। अभिव्यक्ति की आजादी नफ़रत की अभिव्यक्ति के विरुद्ध आती है, जिसे कि दुनिया के बड़े हिस्से में स्वीकार किया गया है जिसमें फ्रांस भी शामिल है। आखिर कोई किसे सीमा समझे? कब व्यंग नफ़रत की अभिव्यक्ति में तब्दील हो जाता है? पश्चिम में यह इतना आसान क्यों है जब “यहूदीवाद के विरुद्ध” ऐसी हरकत होती है तो उसे वे स्वीकार कर लेते हैं और जब इस्लाम की बात होती है तो उनका रुख पलट जाता है?

 

                                                                                                                                           

 

यहाँ तक कि अमरीका में, जहाँ माना जाता है कि मुक्त अभिव्यक्ति पहले संशोधन के तहत संरक्षित है, वहां “आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध” कानून से जुड़ा है और इसका इस्तेमाल विभिन्न संगठनों और व्यक्तियों के विरुद्ध किया जाता है। इस कानून के तहत हिजबुल्लाह को एक आतंकवादी संगठन माना जाता है। हिजबुल्लाह के सम्बन्ध में परचा बांटने और अल-मनार जैसे हिजबुल्लाह के टी.वी. नेटवर्क को खबर देने के लिए लोगों को जेल में डाल दिया गया।

 

हेब्दो के दफ्तर पर हमले को ही केवल अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला मानने का मतलब है कि जैसे पूरी दुनिया को आप एक धुंधले चश्में से देख रहे हैं। यह इस बात को भी दर्ज करने में नज़रंदाज़ करता है कि हमलावर अल्जीरिया मूल की दुसरी पीढी से ताल्लुक रखते हैं, जोकि तंग बस्तियों में रहते हैं और जिन्हें पूरी तरह से हाशिये पर फेंक दिया गया है। फ्रांस की सुरक्षा एजंसियां और खुफिया एजेंसी इस तथ्य से भली भाँती वाकिफ है कि वे जिहादी गतिविधियों में शामिल हैं। उसी तरह जैसे अमरीका ने त्सरानेव भाईयों को अमरिकी खुफिया नीतियों का काकेशस में रूस के विरुद्ध हिस्सा बनने दिया, फ्रांस की विदेश नीति ने इसे इरान, हिजबुल्लाह और सीरिया के विरुद्ध के बड़े “युद्ध” की भाँती देखा। फ्रांस में यह एक राष्ट्रीय नीति रही है। अगर सार्कोजी गद्दाफी और लीबिया के विरुद्ध विभिन्न इस्लामिक समूहों के साथ गठबंधन कर युद्ध छेड़ता है तो होल्लंडे सरीन गैस हमले के झूठे दावे के दम पर उन्ही समूहों के साथ बशर अल अस्साद के खिलाफ बमबारी करता है

 

कांग्रेस के नेता मणिशंकर अय्यर इसे पश्चिम द्वारा आतंक के नाम पर हमले का जवाब बताते हैं: अय्यर कहते हैं कि अगर पश्चिम इस्लामिक देशों पर बमबारी करता है और घुसपैठ करता है, उसके नतीजे गलत निकलेंगे, यह एक साधारण प्रतिक्रिया नीति है। अय्यर यंहा एक बात भूल जाते हैं कि इस हमले की वज़ह पश्चिम द्वारा आतंक के खिलाफ युद्ध नहीं है बल्कि इसके विपरीत नापाक इस्लाम के साथ पश्चिम का रिश्ता इस हमले की वजह है।

 

पश्चिम का कट्टरपंथी इस्लामी समूहों के साथ गठजोड़ नया नहीं है, उसने न केवल सोवियत रूस समर्थित अफगानिस्तान की तरक्की और बाद में बबरक् कमाल सरकार के विरुद्ध अल-कायदा और विभिन्न तालिबानी ताकतों को खड़ा किया बल्कि पहले भी मुस्लिम ब्रदरहुड और सऊदी अरब (अन्य राजतंत्रों) के साथ मिश्र के नास्सेर और सीरिया के हफेज़ अल अस्साद के खिलाफ भी गठजोड़ कायम किया। इस क्षेत्र की प्राकृतिक खजाने पर कब्ज़े के लिए यह गठजोड़ पहले भी था और आज भी है, विशेषकर तेल पर कब्ज़े के लिए अग्रसर है।अफगान युद्ध उसी नीति का हिस्सा है। यहाँ तक की 9/11 और ट्विन टावर पर हमले के बाद भी अध् खुला, आधा छिपा गठजोड़ काकेशस से लेकर सीरिया और लीबिया तक इन कट्टर मुस्लिम ताकतों के साथ जारी रहा। ये वही कट्टर समूह हैं जिनका समर्थन नाटो ने गद्दाफी और सीरियन सरकार के विरुद्ध गुप्त युद्ध के दौरान किया।

 

यह किस किस्म का इस्लाम है जिसके साथ पश्चिम का गठजोड़ है? इसे तक्फिरी या वहाबी इस्लाम कहा जाता है जिसे कि सऊदी अरब के निरंकुश राजतन्त्र और उसके सहयोगी खाड़ी के सभी राजतंत्रों में लागू किया गया है। इस्लामिक स्टेट इसी का और कट्टरपंथी इस्लाम का जहरीला संस्करण है। यह विशेष तौर पर क्रूर और मध्ययुगीन इस्लाम का नमूना है, इसके तहत महिलाओं को कोई अधिकार नहीं है और जो इस्लाम शरिया कानून का बिगड़ा हुआ संस्करण है। यह सभी को जिसमे शिया भी शामिल है को विधर्मी मानता है और वह उन्हें इस्लाम से “हटाना’ चाहता है। हसन नसरुल्लाह जोकि हिजबुल्लाह के नेता है ने तय किया है कि तक्फिरी इस्लाम ने इस्लाम को किसी भी तरह के कार्टूनिस्ट से भी ज्यादा नुकसान पहुंचाया है

 

यद्दपि पश्चिम आज इस्लाम के शोषणकारी विविद्ध स्वरूपों के बारे में बात करता है, लेकिन इसे  सऊदी अरब को प्रमाणित करने का कोई मलाल नहीं है, जिनकी राज्य की नीति वाहाबी इस्लाम को एक मध्यमार्गी इस्लाम के रूप में प्रचारित करता है। न ही उसको सीरिया में इस तरह की ताकतों को धन और हथियार मुहैया कराने का कोई मलाल है। गद्दाफी निजाम को ध्वस्त करने से लीबिया तबाह हो गया है, जिसकी वजह उन ताकतों को बल मिला है जो उत्तर अफ्रीका को लीबिया के साथ-साथ पूरी तरह से तबाह करना चाहते हैं।

 

यह समस्या नहीं है कि घर में क्या हो रहा है। पश्चिम एशिया में जिस तरह की बेहूदा नीतियाँ पश्चिम ने लागू की हैं वे उत्तर अफ्रीका, पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया   को अस्थिर करने की नीति रही है। ये क्षेत्र दुनिया में सबसे बड़े तेल के भण्डार के लिए जाना जाता है और इसमें करीब 2 अरब लोग रहते हैं। ट्विन टावर और हेब्दो पर हमले के लिए, इस क्षेत्र में असंख्य खुनी संघर्ष और नरसंहार हो रहे हैं। उसी समय जब हेब्दो पर हमला हुआ, तब नाइजीरिया में बोको हराम ने 2000 लोगों का नरसंहार किया करीब 20,000 लोग विस्थापित हो गए। हेब्दो पर हुए हमले से कुछ ही दिन पहले हमने पेशावर में स्कूली बच्चों का नरसंहार देखा। दुनिया में इन घटनाओं को लेकर थोड़ा भी संयम नहीं है। यह कहना सही होगा कि तीसरी दुनिया की मौतें या नरसंहार किसी गिनती में नहीं आते हैं। इसलिए हेब्दो के हमले के पीछे पेशावर नरसंहार का दर्द दब कर रह गया।

 

सवाल यह उभरता है कि क्या पश्चिम अपनी धरती पर “आतंकवाद” और “उग्रवाद” के खिलाफ  लड़ सकता है और साथ ही बाहर इसके साथ गठजोड़ किए हुए है? आज वैश्वीकरण का मतलब है कि दोनों लड़ाइयों को जुदा नहीं किया जा सकता है; अगर आप सीरिया में जिहादी उग्रवाद को बढ़ावा देकर आग लगाना चाहते हैं और साथ ही इसके खिलाफ फ्रांस में जाकर आवाज़ बुलंद करना चाहते हैं तो समझ लेना चाहिये की यह वापस आकर आपके घर को भी जला कर राख कर देगा। यही वह सबक है जिसे आज पाकिस्तान को तालिबान के मामले में सीखना पड़ रहा है। ख़राब और सही तालिबान नाम की कोई चीज़ नहीं है; वे एक ही सिक्के के दो पहलु हैं। यह उस वक्त आजादी को कोई सहायता नहीं पहुंचाता है, जब गाजा में बच्चों के हत्यारे और वेस्ट बैंक के जेल गार्ड अभिव्यक्ति के आजादी के लिए जुलुस निकालते हैं।