मोदी का अमरीका दौरा: दवा बाज़ार का निजीकरण और पूंजीपतियों को छूट

मोदी की अमरीका यात्रा के दौरान अमरीका-भारत ने जो संयुक्त बयान जारी किया उसने उन दो भारतीय कानूनों के दरवाजे खोल दिए जिन्हें भारतीय संसद ने पारित किया था। एक पेटेंट कानून – जिसे भारतीय पेटेंट कानून कहा जाता है – यह कानून भारतीय लोगों के लिए दवाओं को सस्ते दाम में उपलब्ध कराने में कुछ हद तक मदद करता है और जिसे अमरीका और उसकी दवा कम्पनियां पिछले एक दशक से बदलवाने की फिराक में हैं। दूसरा कानून परमाणु दायित्व से जुड़ा है जोकि अमेरिका परमाणु उद्योग के लिए अभिशाप है
मोदी की अमरीका यात्रा इस लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है कि अमरीका के साथ कौनसे मुद्दे नहीं उठाये गए। एन.एस.ए. द्वारा भारत में निगरानी रखने के मुद्दे का कोई जिक्र नहीं है, जिसमे भाजपा की निगरानी भी शामिल है। दुनिया में 6 ऐसी राजनितिक संस्थाएं हैं जिन पर एन.एस.ए. आधिकारिक तौर निगरानी रखे हुए है और उसमे एक भाजपा है भारत उन 33 देशों में से एक है जिसने एन.एस.ए. के साथ त्रिपक्षिय समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं जिसके तहत एन.एस.ए. को हमारे दूर-संचार और इन्टरनेट में दखल की इजाजत दी है। इसका मतलब है कि भारत न केवल एस.एस.ए. को किसी भी संस्था और व्यक्ति पर निगरानी रखने की छुट दी है बल्कि उसे इस तरह की निगरानी रखने के लिए सभी रास्तों की व्यवाहरिक इजाजत भी दी है। मोदी ने न तो अपनी ही पार्टी पर निगरानी के खिलाफ कुछ कहा, बल्कि उसने संयुक बयान में रक्षा क्षेत्र और गृह सुरक्षा अनुच्छेदों को भी इसके तहत जारी रखने की अपनी मंशा का भी इज़हार कर दिया। 
ट्रिप्स समझौते की तर्ज़ पर लाने के लिए जोकि विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा है भारतीय पेटेंट कानून का संसोधन 2005 में किया गया था। ट्रिप्स पर हस्ताक्षर करने से भारत ने 1970 के पेटेंट कानून के उन प्रावधानों से हाथ धो लिया जिनकी वजह से दवा और खाद्य क्षेत्र में उत्पाद पेटेंट पर रोक थी। हालांकि ट्रिप्स समझौते में थोड़ा लचीलापन है जिसके लिए भारत जैसे विकासशील देशों ने वार्ता के समय काफी जबरदस्त लड़ाई लड़ी। यह व्यक्तिगत देशों पर छोड़ दिया गया कि वे अनिवार्य लाइसेंस के सम्बन्ध में पेटेंट के स्टैण्डर्ड को तय करें।
अब दुनियाभार में यह स्वीकार कर लिया गया है कि भारत की जेनेरिक उद्योग के बिना एड्स का खात्मा दुनिया से बड़े स्तर पर किया जा सकता था, खासतौर पर अफ्रीका में। बावजूद विभिन्न कोशिशों के फार्मा कंपनियों से एड्स के लिए जो दावा उपलब्ध थी उसकी कीमत करीब 10,000 डॉलर थी। यह तभी संभव हुआ जब सिपला ने यह घोषणा की कि वह एड्स की तीन दवाईओं को एक डॉलर से भी कम पर रोज इस्तेमाल के लिए उपलब्ध कराएगा – यानी 350 डॉलर पूरे साल के लिए – इससे कीमतों में भारी गिरावट आ गयी। हालांकि यह तभी संभव हो पाया क्योंकि ये दवाइयां 1995 से पहले ही पेटेंट कर ली गयी थी और इन दवाइयों पर और भारत पर ट्रिप्स समझौते का कोई असर नहीं था।यहाँ तक कि अमरीका और अन्य विकसित  देशों ने पूरजोर कोशिश की, कि वे भारतीय जेनेरिक कंपनियों को बाज़ार में न घुसने दें, लेकिन उन्हें विकासशील देशों और प्रगतीशील स्वास्थ्य समूहों के दबाव में पीछे हटना पड़ा।
1994 में विश्व व्यापार संगठन में भारत के हस्ताक्षर करने के बाद, भारत को 2005 तक उत्पाद पेटेंट को पेश करना पड़ा। सवाल यह था कि किस तरह के संसोधन जाए ताकि वे ट्रिप्स समझौते से मेल खा सके। एन.डी.एके पिछले निजाम के तहत, उस वक्त के कानून मंत्री अरुण जेटली ने कुछ संसोधनों को पेश किया जोकि बड़ी दवा कंपनियों और औषधियाँ, तथा सॉफ्टवेयर उद्योग के पसंदीदा थे। ये न केवल ट्रिप्स के और दवा कंपनियों के हक में थे बल्कि उन्होंने सॉफ्टवेर पेटेंट को भी इसमें जोड़ लिया। यु.पी.ए. ने भी वास्तविक तौर पर संसद में उन्ही संसोधनों को पेश किया जिन्हें एन.डी.ए ने पेश किया था।  
यहाँ यु.पी.ए. के समय वामपंथ की समझ काफी मायने रखती थी। इस संसोधनों को डब्लू .टी.ओ. के अनुकूल बनाने के लिए यु.पी.ए. को संसद में इसे पारित करने के लिए वामपंथ की जरूरत थी। यह वामपंथ का ही दबाव था कि मनमोहन सरकार को सोफ्टवेयर पेटेंट को छोड़ना पड़ा और कानून में लचीलेपन को लागू करना पड़ा जोकि ट्रिप्स के तहत आज भी मौजूद है। भारतीय पेटेंट कानून में तीन बड़े तत्व जिन्हें कि वामपंथ ने पेश किया था वे आज भी मौजूद हैं जोकि बड़ी दवा कंपनियों और उसकी मुनाफे की विशाल भूख पर लगाम लगाए हुए है।
एक धारा 3 डी है, वह , पेटेंट क्या कराया जा सकता है उसकी सीमा तय करती है – वह है, एक नयी दवा का पेटेंट के लिए दावा करना या दो मानी हुयी दवा को मिश्रित करना – को पेटेंट के काबिल नहीं माना गया है। आगे पेटेंट कानूनों में दो और प्रावधानों को बरकरार रखा गया – एक तो पहले और बाद में दी गयी अनुमति का तीसरी पार्टी द्वारा विरोध और दूसरा अनिवार्य लाईसेन्स जिसके तहत अगर पेटेंट के साथ खिलवाड़ किया जाता है और जनता को उसकी जरूरत है तो उसे निरस्त किया जा सकता है।   
यह अनुमति प्रदान करने से पहले के विरोध और 3डी प्रावधान ही हैं जिसकी वजह से कोर्ट ने यह आदेश दिया कि ग्लीवेक, जो नोवार्टिस की दवा है और ल्यूकीमिया को काबू करती है को पेटेंट नहीं किया जाए। भारत में बड़ी दवा कम्पनियाँ और उनके एजेंट इस बात के लिए परेशान हैं कि 3डी ट्रिप्स के प्रावधानों के अनुकूल क्यों नहीं हैं और वह कैसे भारतीय बाजार में नयी दवाओं के आविष्कार को रोकेगी। अमरीका के संसद के सदस्य और इसके वाणिज्य संगठन इस अभियान में शामिल हो गए हैं कि भारत के पेटेंट कानून को बदलना चाहिए जिससे कि अमरीकी व्यापार के हित को साध सके, अन्यथा भारत को मंजूरी मिल जायेगी।
दूसरा मुद्दा जिस पर भारत विफल रहा वह है वह है अमरीकी व्यापार हित के अनिवार्य लाईसेंस का क्षेत्र। भारत ने नेक्सावर की बेयर केंसर दवा के लिए जोकि काफी ऊँची कीमत वाली दवा है को अनिवार्य लाईसेंस दे दिया। दवा कम्पनी यह दावा करती हैं कि इस तरह के अनिवार्य लाईसेंस देने के अधिकार पर रोक होनी चाहिए – एक ऐसा दावा जिसे कोर्ट में दाखिल नहीं किया जा रहा है। सच्चाई यह है कि ट्रिप्स के तहत हर देश को यह हक है कि वह जन हित में किसी भी दवा के लिए अनिवार्य लाईसेंस जारी कर सकता है, एक ऐसा प्रावधान जिसे अमरीका ने अन्थ्राक्स के समय अपने देश में लागू करने की धमकी दी थी। 
अमरीका के लिए समस्या यह है कि अगर वह भारतीय पेटेंट कानून को ट्रिप्स के मुताल्लिक नहीं मानती है तो इस मुद्दे को उठाने का सही मंच विश्व व्यापार संगठन होगा। यह जानते हुए कि उनके इस तरह के मनसूबे असफल होंगें, अमरीकी सरकार और कंपनियों ने अब धोखा, धमकी और ब्लैकमेल का रास्ता अपनाना शुरू कर दिया है। 
अभी तक भारत सरकार का रुख इस मुद्दे पर बहस ख़त्म का रहा है। भारत अब अपने पेटेंट कानूनों को बदल नहीं सकता है जिन्हें की इसने भारतीय संसद में सर्वसम्मति से पारित किया है। इसमें बदलाव तभी आया जब मोदी सत्ता में काबिज़ हुआ और निर्मला सिथारमण जोकि वाणिज्य मंत्री हैं, ने बयान जारी किया कि भारत को एक नयी बौद्धिक सम्पदा नीति की जरूरत है और कथित तौर पर कहा कि “ क्योंकि भारत के पास कोई नीति नहीं है इसलिए विकसित देश भारत की बौद्धिक सम्पदा नीति पर सवाल खड़ा कर रहे हैं।”
“इस तरह की बयानबाजी से परेशान, शिक्षाविदों, पूर्व राजनयिकों, वैज्ञानिकों, वकीलों और सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठनों ने नरेन्द्र मोदी सरकार को एक स्पष्ट खुला पत्र लिखा जिसमे उन्होंने जोरदार ढंग से बड़ी दवा कंपनियों के हितों के लिए भारत की बौद्धिक सम्पदा कानूनों को संरेखित करने के लिए अमेरिका से बातचीत के खिलाफ सावधान किया। उन्होंने अपने पत्र में यह भी कहा कि यह सही नहीं है कि भारत की बौद्धिक सम्पदा पर कोई नीति नहीं है। इसके विपरीत भारत के पास बौद्धिक सम्पदा पर बड़ी स्पष्ट नीति है, जोकि पेटेंट धारकों की मनमानी   कीमत की लूट से भारतीय लोगों की रक्षा करने में सक्षम है। उनका डर अब सच साबित हो रहा है। अमरीका-भारत की संयुक्त ब्यान कहता है कि “"आर्थिक विकास और रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए एक तरह से नई पद्धति को बढ़ावा देने की आवश्यकता पर सहमति, और नेता प्रतिबद्ध है कि वे एक वार्षिक उच्च स्तरीय बौद्धिक संपदा (आईपी) जो उपयुक्त निर्णय ले सके और व्यापार नीति फोरम के हिस्से के रूप में तकनीकी स्तर की बैठकों का आयोजन कर सके।”
बौद्धिक सम्पदा की जरूरत को अब नई पद्धति के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है न की जनता की जरूरत के हिसाब से। पेटेंट पाने वाले हमेशा से इसकी वकालत करते रहे हैं – कि लोग बड़ी दवा कमपनियों द्वारा नयी पद्धति से तैयार दवाई के लिए सुपर मुनाफा दे, चाहे उससे लोगों की बड़ी संख्या मौत के मुह में ही क्यों न चली गयी हो। दूसरा मुद्दा यह है कि भारत अब इस मुद्दे पर संयुक्त रूप से चर्चा करने के लिए तैयार है, जबकि पहले भारत ने अमरीका के अतर्राष्ट्रीय व्यापार आयोग के साथ बौद्धिक सम्पदा के मुद्दे पर बात करने से इनकार कर दिया था, क्योंकि यह मुद्दा देश की गृह नीति का मुद्दा था। इससे भी खतरनाक है कि हमने न केवल बौद्धिक सम्पदा पर चर्चा स्वीकार कर ली है बल्कि उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया की भूमिका भी दे दी है, जो केवल भारत सरकार की रक्षा कर सकता था।
दूसरा मुद्दा जिस पर मोदी झुका है वह है परमाणु दायित्व का मुद्दा। वैश्विक परमाणु आपूर्तिकर्ता दावा करते  हैं कि उनके परमाणु प्लांट एक दम सुरक्षित हैं और किसी भी दायित्व की मांग, दुर्घटना के मामले में उनके द्वारा स्वीकार नहीं किया जाएगा। विश्व में केवल यही ऐसा उद्योग है जो ऐसा दावा करता है कि उसे किसी भी दायित्व के विरुद्ध "अद्वितीय प्रतिरक्षा" मिलनी चाहिए। भारत की संसद ने उनकी इस मांग को रद्द कर दिया था और कहा था कि अगर वे अरबों डॉलर के रिएक्टर बेचने जा रहे हैं तो उन्हें थोड़ी जिम्मेदारी उठानी होगी। परमाणु दायित्व कानून में यह प्रावधान रखा गया है कि अगर परमाणु ओपरेटर को सप्लायर द्वारा बेचे गए किसी भी तंत्र में खामी मिलती है तो उसे इसका खामियाजा भुगतान पड़ेगा। बेशक, दायित्व केवल 300 मिलियन एसडीआर का है या 1500’ करोड़ का, जोकि विदेशी रिएक्टर की 2-3 अरब डॉलर की कीमत का छोटा सा हिस्सा है। लेकिन ख़राब यंत्र सप्लाई करने के लिए यह छोटी सी जिम्मेदारी कोई ऐसी नहीं है जिसके लिए जीई या एक वेस्टिंगहाउस स्वीकार करने के लिए तैयार है।
मोदी सरकार ने अपनी संयुक्त बयान में कहा कि “नागरिक परमाणु उर्जा सहयोग के विकास के लिए एक संपर्क समूह को स्थापित किया है ताकि वह उनके सांझा उद्देश्य किसके तहत भारत के लिए देश में बने अमरीकी परमाणु स्टेशन से भारत के लिए बिजली खरीदना है, को जल्द प्राप्त कर सके। वे सभी लोग होने वाले मुद्दों पर चर्चा को आगे बढ़ाना चाहते हैं जिसमे उन लोगो को लाइसेंस जारी करना शामिल है जो परमाणु पार्क, जीई हिताची तकनीक और वेस्टिंगहाउस के साथ मिलकर बिजली घर बना सके।” दुसरे शब्दों में संयुक्त संपर्क समूह दायित्व के मुद्दे को भी संबोधित करेगा ताकि वह जीई और वेस्टिंगहाउस की सहायता कर सके।
अमरीका की व्यापार संस्थाओं को संयुक्त रूप से भारत की बौद्धिक सम्पदा और परमाणु दायित्व नीति के बारे में तय करनेका हक देना, देश की जनता के साथ धोखा है। यह न केवल भारतीय लोगो के जीवन को बचाने वाली दवाईओं को खतरे में डालेगा, यह भारत की वैश्विक स्तर पर उस छवि को भी धूमिल करेगा कि भारत गरीबों के लिए वैश्विक दवा के पक्ष में है। भारत का पेटेंट कानून दुनिया के देशों के लिए एक मॉडल है जिसके आधार पर वे अपना पेटेंट कानून बनाना चाहते हैं। अगर भारत के पेटेंट कानून में कोई बदलाव किया जाता है तो यह एक बड़ा देश के लिए और दुनिया के लिए एक बड़ा सदमा साबित होगा।
परमाणु दायित्व पर भारत को अपने दोषपूर्ण आपूर्ति के लिए जिम्मेदार परमाणु आपूर्तिकर्ता को जिम्मेदार ठहराने के लिए एक मज़बूत कानून बनाया है। फिर, मोदी अमेरिका को खुश करने के लिए इसमें बदलाव करना चाहता है। भारत आगमन पर वीसा न केवल अमरीकी नागरिकों को बल्कि अमरीकी कंपनियों को भी दिया जाएगा। जनता के आधार मोदी जो सौगातें अमरीका को बांटी उसका बड़ा खामियाज़ा आम जनता को भूगतान पड़ेगा।